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________________ १४५ है। वे मात्र विद्वान् नहीं हैं, अपितु साधक भी हैं। उनके द्वारा इस कृति की रचना का प्रयोजन उनके अन्त में प्रवाहमान करुणा की अजस्रधारा ही है। उनका प्रतिपाद्य मात्र यही है कि धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर सेवा और करुणा की सद्प्रवृत्तियों का समाज से विलोप न हो। क्योंकि मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों का रक्षक और उनके सुख-दुःख का सहभागी बने। सन्दर्भ : अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ५, पृष्ठ ८७६. जैनसिद्धान्तबोलसंग्रह, भाग ३, पृष्ठ १८२. तत्त्वार्थसूत्र, ६/४. योगशास्त्र, ४/१०७. स्थानाङ्गटीका, १.११-१२. ६. जैनधर्म, पृष्ठ ८४. ७. समयसारनाटक, उत्थानिका २८. ८. भगवतीसूत्र, ७ /१०/१२१. ९. स्थानाङ्गसूत्र, ९. १०. भगवद्गीता, १८.१७. ११. धम्मपद, २४९. १२. सूत्रकृताङ्ग, २/६/२७-४२. १३. जैनधर्म, पृष्ठ १६०. १४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृष्ठ २२६. १५. अनुयोगद्वारसूत्र, १२९. १६. दशवैकालिकसूत्र १२९. १. २. ३. ४. ५. १७. सूत्रकृताङ्ग, २/२/४, पृष्ठ १०४. १८. दशवैकालिक, ६ / ११. १९. कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, भूमिका, पृष्ठ २५-२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001687
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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