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शुद्धोपयोग में ही रहते हैं, किन्तु उनको भी अपनी योग प्रवृत्ति द्वारा वेदनीय कर्म का आस्रव जो पुण्य प्रकृति का आस्रव है या- ईर्यापथिक आस्रव है, होता ही रहता है। इसका फलित यह है कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग में बाधक नहीं है, अपितु साधक ही है। जैन साधना का क्रम यही है कि व्यक्ति अशुभ से शुभ की ओर और शुभ से शुद्ध की ओर बढ़े। अत: शुभोपयोग और शुद्धोपयोग परस्पर विरोधी नहीं हैं शुभोपयोग के सद्भाव में शुद्धोपयोग सम्भव है। वस्तुत: शुद्धोपयोग में बाधक वे ही तथाकथित शुभ प्रवृत्तियां होती हैं, जो फलाकांक्षा से या रागात्मकता से युक्त होती हैं। वस्तुत: वे तो फलाकांक्षा या रागात्मकता के कारण अशुभ ही होती हैं, किन्तु लोक व्यवहार में अथवा उपचार से उन्हें शुभ कहा जाता है। उदाहरण के रूप में कोई व्यक्ति अपने अहं की सन्तुष्टि के लिये अर्थात् मान-कषाय की पूर्ति के लिये दान देता है। बाहर से तो उसका यह कर्म शुभ दिखाई देता है, किन्तु वस्तुत: वह मान-कषाय का हेतु होने के कारण अशुभ ही है। शुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं एक वे जो बाह्य प्रतीति के रूप में तो शुभ दिखाई देते हैं, किन्तु वस्तुत: शुभ होते नहीं हैं, मात्र व्यवहार में उन्हें शुभ कहा जाता है। दूसरे वे जो निष्काम भाव से मात्र दूसरों के प्रति अनुकम्पा या हित बुद्धि से किये जाते हैं वे वस्तुत: शुभ होते हैं। निष्काम भाव और कर्त्तव्य बुद्धि से लोक मंगल के लिये किये गये ऐसे कर्म शुभ भी हैं और शुद्ध भी। यहां शुभ और शुद्ध में विरोध नहीं है। कसायपाहुड की जयधवला टीका में अनुकम्पा और शुद्धोपयोग से भी आश्रव माना है, किन्तु ऐसा आश्रव हेय नहीं है। तीर्थंकर वीतराग होते हैं। उन्हें शुद्धोपयोग दशा में भी योग की सत्ता बने रहने पर शुभास्रव तो होता ही है। अत: शुद्धोपयोग और शुभास्त्रव विरोधी नहीं है। शुद्धोपयोग आत्मा की अवस्था है जबकि शुभ योग, जो पुण्य बन्ध का कारण है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का परिणाम है। जब तक जीवन है, योग होंगे ही। यदि शुभ योग नहीं होंगे तो अशुभ योग होंगे, अत: अशुभ से निवृत्ति के लिये शुभ में प्रवृत्ति आवश्यक है अर्थात् पाप से निवृत्ति के लिये पुण्य रूप प्रवृत्ति आवश्यक है। पाप से अर्थात् अशुभ योग से निवृत्ति होने पर ही शुभ योग द्वारा शुद्धोपयोग की प्राप्ति सम्भव है। शुभ-योग शुद्धोपयोग में बाधक नहीं, साधक है। शुभ योग और शुद्धोपयोग में साधन-साध्य भाव है, अत: उन्हें अविरोधी मानकर शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति के लिये साधनरूप शुभ योगों अर्थात् पुण्य कर्मों का अवलम्बन लेना चाहिये। पापरूपी बीमारी को हटाने के लिये पुण्य प्रवृत्ति औषधि रूप है जिससे आत्म-विशुद्धि रूप स्वास्थ्य या शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति होती है। । शुद्धोपयोग में शुभोपयोग अर्थात् पुण्य कर्म बाधक नहीं साधक ही है। वस्तुतः शुभाशुभ
कर्मों से जो ऊपर उठने की बात कही जाती है उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि मोक्ष रूपी साध्य की उपलब्धि होने पर व्यक्ति पुण्य-पाप दोनों का अतिक्रमण कर जाता है। जिस प्रकार नदी पार करने के लिये नौका की अपेक्षा होती है, किन्तु जैसे ही किनारा प्राप्त हो जाता है नौका भी छोड़ देना पड़ती है, किन्तु इससे नौका की मूल्यवत्ता या
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