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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से समर्थित नहीं है और मुनि आचार का विकृत रूप ही है और यह विकार यति परम्परा के रूप में श्वेताम्बरों और भट्टारक परम्परा के रूप में दिगम्बरों, दोनों में आया है। किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक एवं सामाजिक आवश्यकता थी और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ प्रभावित हुई हैं। दिगम्बर परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ, उसके पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लौकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी लगभग १००० वर्ष तक नग्न मुनियों का अभाव रहा। आज दिगम्बर परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुन: जीवित हुई है, उसका इतिहास तो १०० वर्ष से अधिक का नहीं है। लगभग ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्राय: अभाव ही रहा है। आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक व्यवस्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने मताग्रहों से न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते हैं और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था में परिवर्तन होता है। दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा ने जिनकल्प के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में सचेल मुनि ही नहीं होता है, यह कहकर न केवल महावीर की मूल-भूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया गया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार दिया गया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं और यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही क्षुल्लकों ( युवा-मुनि ) और स्थविरों ( वृद्ध-मुनियों ) के लिये वस्त्र-ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिये और स्थविर ( वृद्ध ) दैहिक आवश्यकता के लिये वस्त्र-ग्रहण करता है। 'क्षुल्लक मुनि नहीं हैं' यह उद्घोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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