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________________ ८४ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न कर दिया। वह वस्त्र-त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि हम महावीर के समकालीन अन्य श्रमण-परम्पराओं की वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण परम्पराएँ प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएँ उपलब्ध हैं, उन सबसे एक मत से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन का तेईसवाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक सम्प्रदाय पूर्णत: अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर ने अपने वंशानुगत पापित्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण करके अपनी साधना-यात्रा प्रारम्भ की हो। कल्पसूत्र में उनके दीक्षित होते समय आभूषण-त्याग का उल्लेख है वस्त्र-त्याग का नहीं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर विहार के वैशाली जनपद में शीत ऋतु के प्रथम मास ( मार्गशीर्ष ) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति आग्रह के कारण सम्भवत: महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया। यही कारण रहा कि मातापिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। पुन: बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है कि विदाई की उस बेला में परिजनों के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो। किन्तु उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग शरीरादि ढकने के लिये नहीं करूंगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया। आचारांग से इन सभी तथ्यों की पुष्टि होती है। उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे, इस तथ्य को स्वीकार करने में श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह स्वीकार करती हैं कि महावीर अचेल धर्म के ही प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का सचेल दीक्षित होना भी स्वैच्छिक नहीं था, वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, अपितु उनके कन्धे पर डाल दिया गया था। यापनीय आचार्य अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है - वे कहते हैं कि यह तो उपसर्ग हुआ, सिद्धान्त नहीं। आचारांग में उनके वस्त्र ग्रहण को 'अनुधर्म' कहा गया है, अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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