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________________ जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का पारस्परिक प्रभाव ५१ और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामत: प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई फिर सिद्धायतन ( जिन-मन्दिर ) आदि बने और बुद्ध एवं जिन-प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान, आदि को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों - जिनपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान - की कल्पना की गयी। हमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों - स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमन्दिर ( सिद्धायतन ) के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। यह सब बृहद् हिन्दू-परम्परा का जैनधर्म पर प्रभाव है। द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में राजप्रश्नीय में वर्णित सूर्याभदेव द्वारा की जाने वाली पूजा-विधि आज भी उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंग-प्रोच्छन, गंध-विलेपन, गंध-माल्य, वस्त्र आदि के अर्पण के उल्लेख हैं, किन्तु राजप्रश्नीय में उल्लिखित यह पूजाविधि भी जैन-परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई है। स्तवन से चैत्यवन्दन और चैत्यवन्दन से पुष्प-अर्चा प्रारम्भ हुई होगी। यह भी सम्भव है कि जिनमन्दिरों और जिनबिम्बों के निर्माण के साथ पुष्पपूजा प्रचलित हुई होगी। फिर क्रमश: पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के शब्दों में – “पूजनसामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा हमें जैन वाङ्मय में उपलब्ध होती है। आरम्भ में पूजन-विधि केवल पुष्पों के द्वारा सम्पत्र की जाती थी, फिर क्रमश: धूप, चन्दन और नैवेद्य आदि पूजा-द्रव्यों का विकास हुआ। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण एवं जटासिंहनन्दि के वरांगचरित में हमारे उक्त कथन का सम्यक् समर्थन होता है। वरांगचरित में राजा श्रीकण्ठ कहता है कि मैंने नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गन्ध से भगवान की पूजा करने का संकल्प किया था, पर वह पूजा न हो सकी। पद्मपुराण में उल्लेख है कि रावण स्नान कर धौतवस्त्र पहन, स्वर्ण और रत्ननिर्मित जिनबिम्बों की नदी के तट पर पूजा करने लगा, किन्तु उसके द्वारा प्रयुक्त पूजा-सामग्री में धूप, चन्दन, पुष्प और नैवेद्य का ही उल्लेख आया है, अन्य द्रव्यों का नहीं। यह स्पष्ट है कि प्रचलित अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने की प्रथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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