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अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैनदर्शन का तत्त्वज्ञान पापित्यों की ही देन है । शुब्रिग ने भी इसिभासियाइं पर पाश्र्वापत्यों का प्रभाव माना है । पुनः बत्तीसवें पिंग नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है । चौतीसवें अध्ययन में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है । इसी अध्ययन में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छिन्नस्रोत, अनासव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है । पुन : पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पांच समिति, पंचेन्द्रिय-संयम, योग-सन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष से रहित विभित्र कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शास्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है । इसी अध्ययन में संज्ञा एवं बाईस परिषहों का भी उल्लेख है ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित है। अत: स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणाएँ इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई ? यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में उल्लेखित ऋषियों में पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं । यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में भी हैं । यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋषियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणाएँ जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं से प्रविष्ट हुई ; पूर्णत : सन्तोषप्रद नहीं लगता है । अत : सर्वप्रथम तो हम यह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने हैं या जैन आचार्यों ने अपनी बात को उनके मुख से कहलवाया है । ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न
यद्यपि ऋषिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी साहित्य हमें जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इनमें से अनेकों के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध हैं । याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है । वज्जीयपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसीप्रकार विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं । ऋषिभाषित में इनके जो विचार उल्लेखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन विचारों का उल्लेख किया गया है उनमें कितनी प्रामाणिकता है । ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्ययन में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश संकलित है । मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के सामञ्ज महाफलसुत्त और सुत्तनिपात में एवं हिन्दू.परम्परा में महाभारत के शान्तिपर्व के १७७वें अध्ययन में मंखी ऋषि के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । तीनों ही स्रोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं। यदि हम ऋषिभाषित अध्याय ११ में वर्णित
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