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________________ २०० की टीका में, उसके पश्चात् जीव स्थान प्रकृति समुत्लकीर्तन (1/9-1/28) की टीका में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार के नाम-कर्म की प्रकृतियों ( 5/5/10 ) की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उस के वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं वरा नामकर्म का उदय बताया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुसार स्थावगं का स्वम्प क्यों नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वह स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को जो सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, उस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दूसरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वह स्थावर, इस व्याख्या को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने स्थावर की यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर है ? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप, वायु. अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की, अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर उस मान रही थी। इस प्रकार उसने दोनों धारणाओं में समन्वय किया है। उस स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचारांग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को वस माना गया होगा। उसके पश्चात् उत्तराध्ययन में पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और दीन्द्रियादि को वस माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी वह उत्तराध्ययन में त्रस वर्ग में मान ली गई। वायु में तो स्पष्ट रूप से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अतः आधारांग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलन प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को त्रस (गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी त्रस माना गया । उत्तराध्ययन की अग्नि और वायु की उस मानने की अवधारणा की ही पुष्टि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रमूल उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावगें और उस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध करती है कि कुछ आगमिक मान्यताओ के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन आगमों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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