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नहीं है। वस्तुतः कुन्दकुन्द शुद्ध आचार के प्रतिपादक एवं प्रभावशाली आचार्य थे और मूलसंघ महावीर की प्राचीन मूलधारा का सूचक था, अतः परवर्तीकाल में सभी अचेल परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित समझा। मात्र उत्तर भारत का काष्ठासंघ और उसका माथुरगच्छ ऐसा था जिसने अपने को मूलसंघ एवं कुन्दकुन्दान्वय से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठासंघ मुख्यतः उत्तर भारत से सम्बद्ध था और इस क्षेत्र में 12-13वीं शती तक कुन्दकुन्दान्वय का प्रभाव अधिक नहीं था। वस्तुतः मूलसंध मात्र एक नाम था, जिसका उपयोग 9-10वीं शती से दक्षिण भारत की अचेल परम्परा की सभी शाखायें करने लगी थी। शायद उत्तर भारत की सचेल परम्परा भी अपनी मौलिकता सूचित करने हेतु इस विरुद का प्रयोग करने लगी हो। माथुरसंघ
माथुरसंघ.भी मुख्यतः दिगम्बर परम्परा का ही संघ है। मथुरा से प्राप्त पूर्व में उल्लेखित तीन अभिलेखों को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी श्वे. माथुर संघ का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन उपरोक्त तीनों अभिलेखों के आधार पर हम यह मानने के लिए विवश हैं कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में श्वे. माथुरसंघ का अस्तित्व था। यद्यपि यह बात भिन्न है कि यह माथुरसंघ श्वेताम्बर मुनियों का कोई संगठन न होकर मथुरा के श्वेताम्बर श्रावकों का एक संगठन था
और यही कारण है कि श्वे. माथुर संघ के अभिलेख मथुरा से अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हुए। यदि श्वेताम्बर माथुर संघ मुनियों का कोई संगठन होता तो इसका उल्लेख मथुरा से अन्यत्र अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से मिलना चाहिये था। पुनः इन तीनों अभिलेखों में मुनि और आचार्य के नामों के उल्लेख का अभाव यही सूचित करता है कि यह संघ श्रावकों का संघ था।
जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें माथुरसंघ नामक एक मुनि संघ था और उसकी उत्पत्ति विक्रम संवत् 953 में आचार्य रामसेन से मानी जाती है। माथुरसंघ का साहित्यिक उल्लेख इन्द्रनंदी के श्रुतावतार और देवसेन के दर्शनसार में मिलता है। इन्द्रनन्दी ने इस संघ की गणना जैनाभासों में की है और निष्पिच्छिक के रूप में इसका उल्लेख किया है। देवसेन ने भी दर्शनसार में इसे निष्पिच्छिक बताया है। यद्यपि इसकी उत्पत्ति विक्रम सं. 953 में बताई गई है किन्तु उसका सर्वप्रथम साहित्यिक उल्लेख अमितगति के सुभाषितरत्नसंदोह में मिलता है जो कि मुंज के शासन काल में (विक्रम 1050 ) में लिखा गया। सुभाषितरत्न संदोह के अतिरक्त वर्धमाननीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, तत्त्वभावना उपासकाचार आदि भी इनकी कृतियां हैं। अभिलेखीय स्रोतों की दृष्टि से इस संघ का सर्व प्रथम उल्लेख विक्रम सं. 1166 में अथुर्ना के अभिलेख में मिलता है। दूसरा अभिलेखीय उल्लेख 1226 के बिजोलिया के मन्दिर का है, इसके बाद के अनेक अभिलेख इस संघ के मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अपनी उत्पत्ति के कुछ ही वर्ष बाद यह संघ काष्ठासंघ का एक अंग बन गया और परवर्ती उल्लेख काष्ठासंघ की एक शाखा माथुरगच्छ के रूप में मिलते हैं।
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