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________________ प्राणीय जीवन से जो तुलना की गई है, वह आज अधिक विज्ञान सम्मत सिद्ध हो रही है। आचारांग का यह कथन कि वानस्पतिक जगत् में उसी प्रकार की संवेदनशीलता है जैसी प्राणी-जगत में इस तथ्य को सामान्यतया पाश्चात्य वैज्ञानिकों की आधुनिक खोजों के पूर्व सत्य नहीं माना जाता था, किन्तु सर जगदीशचन्द बसु और अन्य जैव-वैज्ञानिकों ने अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि वनस्पति में भी प्राणी जगत् की ही तरह ही संवेदनशीलता है । अतः आज आचारांग का कथन विज्ञान सम्मत सिद्ध होता है। -- १६६ हमें यह बात ध्यान में रखना है कि न तो विज्ञान धर्म का शत्रु है और न धार्मिक आस्थाओं को खण्डित ही करना ही उसका उद्देश्य है, वह जिसे खण्डित करता है वे हमारे तथाकथित धार्मिक अन्धविश्वास होते हैं। साथ ही हमें यह भी समझना चाहिये कि वैज्ञानिक खोजों के परिणामस्वरूप अनेक धार्मिक अवधारणायें पुष्ट ही हुई हैं। अनेक धार्मिक आचार-नियम जो केवल हमारी शास्त्र के प्रति श्रद्धा के बल पर टिके थे, अब उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता सिद्ध हो रही है । जैन परम्परा में रात्रि - भोजन का निषेध एक सामान्य नियम है, चाहे परम्परागत रूप में रात्रि - भोजन के साथ हिंसा की बात जुड़ी हो, किन्तु आज रात्रि भोजन का निषेध मात्र हिंसा-अहिंसा के आधार पर स्थित न होकर जीव-विज्ञान, चिकित्साशास्त्र और आहारशास्त्र की दृष्टि से अधिक विज्ञान सम्मत सिद्ध हो रहा है। सूर्य के प्रकाश में, भोजन के विषाणुओं को नष्ट करने की तथा शरीर में भोजन को पचाने की जो सामर्थ्य होती है, वह रात्रि के अन्धकार में नहीं होती यह बात अब विज्ञान सम्मत सिद्ध हो चुकी है। इसी प्रकार सूर्यास्त के बाद भोजन चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से भी अनुचित माना जाने लगा है। चिकित्सकों ने बताया है कि रात्रि में भोजन के बाद अपेक्षित मात्रा में पानी न ग्रहण करने से भोजन का परिपाक सम्यक् रूप से नहीं होता है। यदि व्यक्ति जल की सम्यक् मात्रा का ग्रहण करने का प्रयास करता है, तो उसे बार-बार मूत्र - त्याग के लिए उठना होता है, फलस्वरूप निद्रा भंग होती है। नींद पूरी न होने के कारण वह सुबह देरी से उठता है और इस प्रकार न केवल उसकी प्रातः कालीन दिनचर्या अस्त-व्यस्त होती है, अपितु वह अपने शरीर को भी अनेक विकृतियों का घर बना लेता है। जैनों में सामान्य रूप से अवधारणा थी कि वे अन्नकण जो अंकुरित हो रहे हैं अथवा किसी वृक्ष आदि का वह हिस्सा जहाँ अंकुरण हो रहा है, वे अनन्तकाय है और अनन्तकाय का भक्षण अधिक पापकारी है । आज तक यह एक साधारण सिद्धान्त लगता था, किन्तु आज वैज्ञानिक गवेषणा के आधार पर यह सिद्ध हो रहा है कि जहाँ भी जीवन के विकास की सम्भावनाएं हैं, उसके भक्षण या हिंसा से अनन्त जीवों की हिंसा होती है। क्योंकि जीवन के विकास की वह प्रक्रिया कितने जीवों को जन्म देगी यह बता पाना भी सम्भव नहीं है, यदि हम उसकी हिंसा करते हैं तो जीवन की जो नवीन सतत् धारा चलने वाली थी, उसे ही हम बीच में अवरुद्ध कर देते हैं। इस प्रकार अनन्त जीवन के विनाश के कर्त्ता सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार मानव का स्वाभाविक आहार शाकाहार है, मांसाहार एवं अण्डे आदि के सेवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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