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________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास सर्वदर्शी आत्मा को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के दो भेद किये गए हैं अर्हत् और सिद्ध । जीवनमुक्त आत्मा अर्हत् कहा जाता है और विदेहमुक्त आत्मा सिद्ध कहा जाता है । ' ज्ञानात्मा, कठोपनिषद् में भी इसी प्रकार आत्मा के तीन भेद महदात्मा और शान्तात्मा किये गए हैं। तुलनात्मक दृष्टि से ज्ञानात्मा, बहिरात्मा, महदात्मा, अन्तरात्मा और शान्तात्मा परमात्मा है। मोक्षप्राभृत, नियमसार, रयणसार, योगसार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि सभी में तीनों प्रकार की आत्माओं के यही लक्षण किये गए हैं। आत्मा की इन तीनों अवस्थाओं को क्रमशः १. मिथ्यादर्शी आत्मा, २. सम्यग्दर्शी आत्मा और ३. सर्वदर्शी आत्मा भी कहते हैं । साधना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः पतित अवस्था, साधक अवस्था और सिद्धावस्था कह सकते हैं। अपेक्षा- भेद से नैतिकता के आधार पर इन तीनों अवस्थाओं को १. अनैतिकता की अवस्था, २. नैतिकता की अवस्था और ३. अतिनैतिकता की अवस्था कहा जा सकता है। पहली अवस्था वाला व्यक्ति दुराचारी या दुरात्मा है, दूसरी अवस्था वाला सदाचारी या महात्मा है और तीसरी अवस्था वाला आदर्शात्मा या परमात्मा है। जैन दर्शन के गुणस्थान सिद्धान्तों में प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा की अवस्था का चित्रण है। चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा की अवस्था का विवेचन है। शेष दो गुणस्थान आत्मा के परमात्म स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं। पण्डित सुखलालजी इन्हें क्रमशः आत्मा की (१) आध्यात्मिक अविकास की अवस्था, (२) आध्यात्मिक विकास क्रम की अवस्था और (३) आध्यात्मिक पूर्णता या मोक्ष की अवस्था कहते हैं । " सन्दर्भ १. नियमसार, ७७. २. स्पिनोजा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त, पृ० ३८ टिप्पणी, १९९, २०४. ३. ( अ ) अध्यात्ममत परीक्षा, गा० १२५. ( ब ) योगावतार, द्वात्रिंशिका, १७ - १८. ( स ) मोक्खपाहुड, ४. ४. देखिए ५. मोक्खपाहुड, ४. ६. वही, ५, ८, १०, ११. १५९ - Jain Education International आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन ३-४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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