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________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व एवं रचनाकाल १५५ ।। मतभेदों की किञ्चित् सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलतः आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रन्थ इन परम्पराओं में भी पहँचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि विकसित होगी। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम संस्थान, उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन इनके इन प्रयत्नों को प्रोत्साहित करेंगे, जिसके माध्यम से प्राकृत साहित्य की यह अमूल्य निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी। सन्दर्भ १. 'अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक १३, खण्ड ५, भाग ५, सूत्र ४८, पृ० २६७, उद्धृत - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ० ७०. २. वही, पृ० ७०. ३. नन्दीसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष १९८२, सूत्र ८१. ४. उद्धृत - पइण्णयसुत्ताई, सम्पा० मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण १९८४, भाग १, प्रस्तावना, पृ० २१. ५. वही, प्रस्तावना, पृ० २०-२१. ६. ( क ) स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा० मुनिमधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष १९८१, स्थान १०, सूत्र ११६. (ख ) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा० मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष १९८२, समवाय ४४, सूत्र २५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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