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षड्दर्शन समुच्चय की समीक्षा
उसमें भी एक दर्शन के द्वारा दूसरे दर्शन का खण्डन कराते हुए अन्तिम दर्शन का खण्डन प्रथम दर्शन से करवाकर एक चक्र की स्थापना की गई है। यद्यपि यह स्पष्ट रूप से जैनदर्शन की सर्वोपरिता को प्रस्तुत नहीं करता किन्तु उसकी दृष्टि भी स्वपक्ष अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही रही है। यही स्थिति सर्वसिद्धान्तसंग्रह और सर्वदर्शनसंग्रह की भी है। उनमें भी स्वपक्ष के मण्डन की प्रवृत्ति रही है। अत: वे जैन दार्शनिक हों या जैनेतर दार्शनिक, सभी के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में मूल उद्देश्य तो अपने दर्शन की सर्वोपरिता की प्रतिस्थापना ही रही है। इस प्रकार हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है वह जैन और जैनेतर परम्परा के अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती। यह तो हरिभद्र की उदार और व्यापक दृष्टि ही थी जिसके कारण उनके द्वारा सम्प्रदायनिरपेक्ष षड्दर्शनसमुच्चय की रचना हो पाई। उनके ग्रन्थ षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवार्तासमुच्चय इन दोनों में ही अन्य दर्शनों के प्रति पूर्ण प्रामाणिकता और आदर का तत्त्व देखा जाता है। सामान्यतया दार्शनिक ग्रन्थों में परपक्ष को एक भ्रान्त रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु हरिभद्र की ही यह विशेषता है कि उन्होंने षड्दर्शनसमुच्चय में अन्य दर्शनों को अपने यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया
हरिभद्र के इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पर गुणरत्नसूरिकृत टीका भी महत्त्वपूर्ण है, किन्तु ज्ञातव्य है कि टीका में भी उस उदार दृष्टि का निर्वाह नहीं देखा जाता जो मूल ग्रन्थकार की है क्योंकि टीका में चतुर्थ अधिकार में जैनमत के प्रस्तुतीकरण के साथ अन्य मतों की समीक्षा भी की गई है, जबकि हरिभद्र की कारिकाओं में इस प्रकार का कोई भी संकेत नहीं मिलता है। इस टीका में जैनदर्शन की प्रतिस्थापना का प्रयत्न अतिविस्तार से हुआ है। टीका का आधे से अधिक भाग तो मात्र जैनदर्शन से सम्बन्धित है, अत: टीका की विवेचना में वह सन्तुलन नहीं है, जो हरिभद्र के मूल-ग्रन्थ में है।
हरिभद्र का यह मूल ग्रन्थ और उसकी टीका यद्यपि अनेक भण्डारों में हस्तप्रतों के रूप में उपलब्ध थे, किन्तु जहाँ तक हमारी जानकारी है, गजराती टीका के साथ हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का सर्वप्रथम प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता से १९०५ में हुआ था। इसी प्रकार मणिभद्र की लघुवृत्ति के साथ इसका प्रकाशन चौखम्भा संस्कृत सीरीज, वाराणसी के द्वारा सन् १९२० में हुआ। इस प्रकार षड्दर्शनसमुच्चय मूल का टीका के साथ प्रकाशन उसके पूर्व भी हुआ था, किन्तु वैज्ञानिक रीति से सम्पादन और हिन्दी अनुवाद तो अपेक्षित था। इस ग्रन्थ का वैज्ञानिक रीति से सम्पादन और हिन्दी अनुवाद का यह महत्त्वपूर्ण
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