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________________ प्रमाण - लक्षण-निरूपण में प्रमाणमीमांसा का अवदान 'व्यवसायात्मकता' को आवश्यक समझा । परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने भी विद्यानन्द का ही अनुसरण किया है। अभयदेव, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र सभी ने प्रमाण - लक्षण - निर्धारण में अपूर्व' पद को आवश्यक नहीं माना है । १३७ जैन - परम्परा में हेमचन्द्र तक प्रमाण की जो परिभाषाएँ दी गई हैं, उन्हें पं० सुखलालजी ने चार वर्गों में विभाजित किया है १. प्रथम वर्ग में स्वपर अवभास वाला सिद्धसेन ( सिद्धर्षि १० ) और समन्तभद्र का लक्षण आता है। स्मरण रहे कि ये दोनों लक्षण बौद्धों एवं नैयायिकों के दृष्टिकोणों के समन्वय का फल है । २. इस वर्ग में अकलंक और माणिक्यनन्दी की अनधिगत, अविसंवादि और अपूर्व लक्षण वाली परिभाषाएँ आती हैं। ये लक्षण स्पष्ट रूप से बौद्ध मीमांसकों के प्रभाव से आए हैं। ज्ञातव्य है कि न्यायावतार में 'बाधविवर्जित' रूप में अविसंवादित्व का लक्षण आ गया है। ३. तीसरे वर्ग में विद्यानन्द, अभयदेव, और वादिदेवसूरि के लक्षण वाली परिभाषाएँ आती हैं जो वस्तुतः सिद्धसेन ( सिद्धर्षि ? ) और समन्तभद्र के लक्षणों का शब्दान्तरण मात्र हैं और जिनमें अवभास पद के स्थान पर व्यवसाय या निर्णीत पद रख दिया गया है। ४. चतुर्थ वर्ग में आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाण- लक्षण की परिभाषा आती है, जिसमें 'स्व' बाधविवर्जित, अनधिगत या अपूर्व आदि सभी पद हटाकर परिष्कार किया गया है। यद्यपि यह ठीक है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण- लक्षण-निरूपण में नयी शब्दावली का प्रयोग किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने अपने पूर्व के जैनाचार्यों के प्रमाण - लक्षणों को पूरी तरह से छोड़ दिया है। यद्यपि इतना अवश्य है कि हेमचन्द्र ने दिगम्बराचार्य विद्यानन्द और श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और वादिदेवसूरि का अनुसरण करके अपने प्रमाणलक्षण में अपूर्व पद को स्थान नहीं दिया है। पं० सुखलालजी के शब्दों में उन्होंने 'स्व' पद, जो सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्यों की परिभाषा में था, निकाल दिया। अवभास, व्यवसाय आदि पदों को स्थान न देकर अभयदेव के निर्णीत पद के स्थान पर निर्णय पद दाखिल किया" और उमास्वाति, धर्मकीर्ति, भासर्वज्ञ आदि के 'सम्यक्' पद को अपनाकर 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' के रूप में अपना प्रमाणलक्षण प्रस्तुत किया। इस परिभाषा या प्रमाण-लक्षण में 'सम्यक्' पद किसी सीमा तक पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रयुक्त बाधविवर्जित या अविसंवादि का पर्याय माना जा सकता है। 'अर्थ' शब्द का प्रयोग जहाँ बौद्धों के विज्ञानवादी दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए प्रमाण के 'पर' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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