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________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न १२९ समाप्त हो गयी है तो बाह्यरूप से वह चाहे गृहस्थवेश धारण किये हए हो उसकी मुक्ति में कोई बाधा नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य२६ में तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के सातवें सूत्र का भाष्य करते हुए उमास्वाति ने वेश की अपेक्षा से द्रव्य लिंग के तीन भेद किये - (१) स्वलिंग, (२) गृहलिंग, (३) अन्यलिंग और यह बताया कि इन तीनों लिंगों से मुक्ति हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। इस प्रकार उमास्वाति अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति को विकल्प से स्वीकार करते हैं, किन्तु इसी सूत्र की व्याख्या में पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में द्रव्यलिंग की दृष्टि से निर्ग्रन्थलिंग से ही सिद्धि मानते हैं। यद्यपि उन्होंने यह माना है कि भूतपूर्व नय की अपेक्षा से सग्रन्थलिंग से भी सिद्धि होती है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के प्रस्तुत सूत्र (१०/७) में सिद्ध जीवों का क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ आदि की अपेक्षा से जो विचार किया गया है, वह उनके मुक्ति प्राप्त करने के समय की स्थिति के सन्दर्भ में है। अत: भूतपूर्व नय का यहाँ कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि यदि भूतपूर्व नय से कहना होता तो उसमें तो सभी लिंग, सभी वेद, सभी गति, सभी क्षेत्र आदि से मुक्ति मानी जा सकती थी। भूतपूर्व नय का कथन मात्र आगम और अपनी परम्परा के मध्य संगति बिठाने हेतु किया गया है। फिर भी इससे यह तो फलित होता ही है कि पूज्यपाद के समय में दिगम्बर परम्परा में अन्यतैर्थिक और गृहस्थ मुक्ति के निषेध की अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी। पूज्यपाद की सर्वार्थटीका से पहले हमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के किसी भी ग्रन्थ में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति के स्पष्ट निषेध सम्बन्धी कोई भी उल्लेख नहीं मिले हैं। श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में तो स्पष्ट रूप से इन तीनों की मुक्ति का उल्लेख हुआ है, यह हम पूर्व में बता चुके हैं। कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के समय से ही जैन विद्वानों में यह मतभेद अस्तित्व में है। हमारी दृष्टि में कुन्दकुन्द भी पूज्यपाद के समकालीन लगभग छठी शती के ही हैं। अत: पूज्यपाद के साथ-साथ उन्होंने भी सूत्रप्राभृत२८ में 'वस्त्रधारी' की मुक्ति का निषेध किया है। वे कहते हैं कि - "यदि तीर्थङ्कर भी वस्त्रधारी हो तो वह भी मुक्त नहीं हो सकता।" इस निषेध में स्त्री, अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ तीनों की मुक्ति का ही निषेध हो जाता है, क्योंकि ये तीनों ही वस्त्रधारी हैं। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द एवं पूज्यपाद के काल से स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थ की मुक्ति का भी निषेध कर दिया गया। वस्तुत: कोई भी धर्म-परम्परा जब साम्प्रदायिक संकीर्णताओं में सिमटती जाती है तो उसमें अन्य परम्पराओं के प्रति उदारता समाप्त होती जाती है। अन्यतैर्थिकों एवं गृहस्थों की मुक्ति का निषेध इसी का परिणाम था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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