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स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न
आदि से युक्त प्राणी के लिये ही प्रयुक्त होता है। यहाँ ( षटखण्डागम के प्रस्तुत प्रसंग में ) स्त्री शब्द का अन्य कोई अर्थ उसी प्रकार निरर्थक है जैसे कोई अग्निपुत्र नामक व्यक्ति का अर्थ अग्नि से उत्पन्न पुत्र करे। पुन: जब आगमों में यह कहा जाता है कि स्त्री छठे नरक से आगे नहीं जाती, वहाँ आप स्त्री शब्द को उसके मुख्य अर्थ में लें और आगे जब आगम में यह कहा जाये कि स्त्री में चौदह गुणस्थान होते हैं तो वहाँ स्त्री शब्द को उसके गौण अर्थ अर्थात् भाव-स्त्री के रूप में लें, यह उचित नहीं है। शाकटायन यहाँ स्पष्ट रूप से वीरसेन की षटखण्डागम के सत्प्ररूपणाखण्ड के ९३वें सूत्र की व्याख्या पर कटाक्ष करते हुए प्रतीत होते हैं। षट्खण्डागम में सत्प्ररूपणा की गतिमार्गणा में यह कहा गया है कि पर्याप्त मनुष्यनी में संयतासंयत, संयत आदि गुणस्थान होते हैं। वीरसेन ने यहाँ मनुष्यनी शब्द की भावस्त्री या स्त्रीवेदी पुरुष ऐसी जो व्याख्या की है, वह शाकटायन को स्वीकार्य नहीं है। शाकटायन का स्पष्ट मत है कि आगम ( षटखण्डागम ) में जो मनुष्यनी शब्द प्रयुक्त हुआ है वहाँ उसका मुख्य अर्थ 'स्त्री' ही ग्राह्य है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मनुष्यनी का अर्थ स्त्रीवेदी पुरुष ( स्त्रैण-पुरुष ) इसलिये भी ग्राह्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यह चर्चा गतिमार्गणा के सन्दर्भ में है, वेद-मार्गणा के सम्बन्ध में नहीं है। वेद-मार्गणा की चर्चा तो आगे की ही गई है। अत: प्रस्तुत सन्दर्भ में 'मनुष्यनी' का अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य/भावस्त्री नहीं किया जा सकता है।
पुन: स्त्रीवेद ( कामवासना ) की उपस्थिति में तो मुक्ति सम्भव ही नहीं होती है, वेद तो नवें गुणस्थान में ही समाप्त हो जाता है। किन्तु स्त्रीवेद शरीर की उपस्थिति में सम्भव है, क्योंकि शरीर तो चौदहवें गुणस्थान अर्थात् मुक्ति के लक्षण तक रहता है।
पुन: पुरुष शरीर में स्त्रीवेद अर्थात् पुरुष द्वारा भोगे जाने सम्बन्धी कामवासना अथवा स्त्री शरीर में पुरुषवेद अर्थात् स्त्री को भोगने सम्बन्धी कामवासना का उदय मानना भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं है। यदि यह माना जायेगा कि पुरुष की आंगिक संरचना में स्त्री रूप से भोगे जाना और स्त्री की शारीरिक रचना में पुरुष रूप से स्त्री को भोग करना सम्भव होता है तो फिर समलिंगी विवाह-व्यवस्था को भी मानना होगा। साथ ही यदि पुरुष में स्त्रीवेद का उदय अर्थात् दूसरे पुरुष के द्वारा स्त्री रूप में भोगे जाने सम्बन्धी कामवासना का उदय सम्भव मानेंगे, तो फिर मुनियों का परस्पर साथ में रहना भी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि किसी श्रमण में कब स्त्रीवेद का उदय हो जाय, यह कहना कठिन होगा और स्त्रीवेदी श्रमण के साथ पुरुषवेदी श्रमण का रहना श्रमणाचार नियमों के विरुद्ध होगा। किसी भी व्यक्ति में भिन्न-लिंगी कामवासना का उदय मानना सम्भव
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