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________________ १२० स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न नवम गुणस्थान का भी सद्भाव प्रतिपादित है। पुन: यदि यह तर्क दिया जाय कि नवम गुणस्थान को प्राप्त करने में समर्थ होने पर भी, यदि स्त्री में लब्धि प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तो वह कैवल्य आदि को प्राप्त नहीं कर पाती है। इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि वर्तमान में भी स्त्रियों में आमर्ष लब्धि अर्थात् शरीर के मलों का औषधि रूप में परिवर्तित हो जाना आदि लब्धि स्पष्ट रूप से देखी जाती है। अत: वह लब्धि से रहित भी नहीं है। यदि यह कहा जाय कि स्त्री लब्धि योग्य होने पर भी कल्याण-भाजन न हो तो वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगी। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि स्त्रियाँ कल्याण-भाजन होती हैं, क्योंकि वे तो तीर्थङ्करों को जन्म देती हैं। अत: स्त्री उत्तम धर्म अर्थात मोक्ष की अधिकारी हो सकती है। हरिभद्र ने इसके अतिरिक्त सिद्धों के पन्द्रह भेदों की चर्चा करते हुए सिद्धप्राभृत का भी एक सन्दर्भ प्रस्तुत किया है। सिद्धप्राभृत में कहा गया है कि सबसे कम स्त्री-तीर्थङ्कर ( तीर्थङ्करी ) सिद्ध होते हैं। उनकी अपेक्षा स्त्री तीर्थङ्कर के तीर्थ में नौ तीर्थङ्कर सिद्ध असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा स्त्रीतीर्थङ्कर के तीर्थ में नौ तीर्थङ्करी सिद्ध ( स्त्री शरीर से सिद्ध ) असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। सिद्धप्राभृत ( सिद्धपाहुड ) एक पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें सिद्धों के विभिन्न अनुयोगद्वारों की चर्चा हुई है। ज्ञातव्य है कि हरिभद्र के समकालीन सिद्धसेनगणि ने अपने तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति में सिद्धप्राभृत का एक सन्दर्भ दिया है। यह ग्रन्थ अनुमानतः नन्दीसत्र के पश्चात् लगभग सातवीं शती में निर्मित हुआ होगा। इस प्रकार यापनीय परम्परा में ही सर्वप्रथम स्त्रीमुक्ति का तार्किक समर्थन करने का प्रयास हुआ है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में जो तर्क दिये हैं वे मुख्यत: यापनीयों का ही अनुसरण हैं। ललितविस्तरा में अपनी ओर से एक भी नया तर्क नहीं दिया गया है, मात्र यापनीयतन्त्र के कथन का स्पष्टीकरण किया गया है। इसका कारण यह है कि श्वेताम्बरों को स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा का ज्ञान यापनीयों के माध्यम से ही हुआ क्योंकि कुन्दकुन्द की स्त्रीमुक्ति निषेधक परम्परा सुदर दक्षिण में ही प्रस्थापित हुई थी। अत: उसका उत्तर भी दक्षिण में अपने पैर जमा रही यापनीय परम्परा को ही देना पड़ा। यापनीय आचार्य शाकटायन ने तो स्त्रीनिर्वाणप्रकरण नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की ही रचना की है। वह अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कहते हैं कि भक्ति और मुक्ति के प्रदाता निर्मल अर्हत् के धर्म को प्रणाम करके मैं संक्षेप में स्त्री-निर्वाण और केवलीमुक्ति को कहूँगा।" इसी ग्रन्थ में शाकटायन कहते हैं कि रत्नत्रय की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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