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________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न ११७ ( ई० सन् ११५० ), हेमचन्द्र ( ई० सन् ११६० ), वादिदेव ( ई० सन् ११७० ), रत्नप्रभ ( ई० सन् १२५० ), गुणरत्न ( ई० सन् १४०० ), यशोविजय ( ई० सन् १६६० ), मेघविजय ( ई० सन् १७०० ) ने अपनी कलम चलाई। दूसरी ओर स्त्रीमुक्ति के विपक्ष में दिगम्बर परम्परा में वीरसेन ( लगभग ई० सन् ८०० ), देवसेन ( ई० सन् ९८० ), नेमिचन्द ( ई० सन् १०५० ), प्रभाचन्द ( ई० सन् ९८०-१०६५ ), जयसेन ( ई० सन् ११५० ), भावसेन ( ई० सन् १२७५ ) आदि ने अपनी लेखनी चलाई। १२ यहाँ हमारे लिये उन सबकी विस्तृत चर्चा करना सम्भव नहीं है। इस सन्दर्भ में हम यापनीय आचार्यों के कुछ प्रमुख तर्कों का उल्लेख करके इस विषय को विराम देंगे। जो पाठक इस सम्बन्ध में विशेष जानने को इच्छुक हों, उन्हें प्रो० पद्मनाभ जैनी के ग्रन्थ Gender Salvation को देखना चाहिये। जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु उनमें कहीं भी उसका तार्किक समर्थन नहीं हुआ है। दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का सर्वप्रथम तार्किक खण्डन कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलता है। कुन्दकुन्द ने इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो यही तर्क दिया था कि जिनशासन में वस्त्रधारी सिद्ध नहीं हो सकता चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो ? १३ इससे ऐसा लगता है कि स्त्रीमुक्ति के निषेध की आवश्यकता तभी हुई जब अचेलता को ही एक मात्र मोक्षमार्ग मान लिया गया। हमें यहाँ कहने में संकोच नहीं है कि अचेलता के एकान्त आग्रह ने ही इस अवधारणा को जन्म दिया, क्योंकि शारीरिक आवश्यकता एवं सामाजिक मर्यादा के कारण स्त्री नग्न नहीं रह सकती। नग्न हुए बिना मुक्ति नहीं होती, इसलिये स्त्री मुक्त नहीं हो सकती। इसी आग्रह के कारण गृहस्थलिंगसिद्ध और अन्यलिंगसिद्ध ( सग्रन्थमुक्ति ) की आगमिक अवधारणा का निषेध भी आवश्यक हो गया। आगे चलकर जब स्त्री को प्रव्रज्या के अयोग्य बताने के लिये तर्क आवश्यक हुए, तो यह कहा गया कि यदि स्त्री, दर्शन से शुद्ध तथा मोक्षमार्ग से मुक्त होकर घोर चारित्र का पालन कर रही हो, तो भी उसे प्रव्रज्या नहीं दी जा सकती। वास्तविकता यह है कि जब प्रव्रज्या को अचेलता से भी जोड़ दिया गया तब यह कहना आवश्यक हो गया कि स्त्री पंचमहाव्रत रूप दीक्षा की अधिकारी नहीं है। यह भी प्रतिपादन किया गया कि जो सवस्त्रलिंग है वह श्रावकों का है। अत: क्षुल्लक एवं ऐलक के साथ-साथ आर्यिका की गणना भी श्रावक/श्राविका के वर्ग में की गई। अचेल परम्परा में भी कुन्दकुन्द के पूर्व स्त्रियाँ दीक्षित होती थीं और उनको महाव्रत भी प्रदान किये जाते थे। दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द ही ऐसे प्रथम आचार्य प्रतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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