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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है I १०० १२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल को नहीं करनी होती । १३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रँगना आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने होते । १४. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना ( जिनकल्प का आचरण ) भी अचेलता का एक गुण है। क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिनप्रतिमा और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है, अर्थात् जिनकल्प का पालन नहीं करता है। १५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है, तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् उन्हें भी निर्ग्रन्थ मानना होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से अचेलकत्व की समर्थक है । किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कि वे आज श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को मान्य करते थे, जिनमें वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे । अतः उनके समक्ष दो प्रश्न थे एक ओर अचेलकत्व का समर्थन करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ में सम्यक् व्याख्या करना । अपराजित सूरि ने इस सम्बन्ध में भगवती आराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थ दृष्टि का परिचायक है। ― अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है, जिनमें वस्त्र - पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं 'आचारप्रणिधि' अर्थात् दशवैकालिक" के आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना करनी चाहिए। यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन क्यों किया जाता ? पुनः आचारांग " के 'लोकविचय' नामक दूसरे अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन ( पडिलेहण ), पादप्रोंछन ( पायपुच्छन ), अवग्रह ( उग्गह ), कटासन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001686
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size14 MB
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