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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
२. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर होता है।
३. परिग्रह ( वस्त्रादि ) के लिये हिंसा ( आरम्भ ) में प्रवृत्ति होती है, जो अपरिग्रही है, वही हिंसा ( आरम्भ ) नहीं करता है। अतः पूर्ण अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है।
४. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के अभाव में झुठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अत: अचेल-मुनि सत्य ही बोलता है।
५. अचेल में लाघव भी होता है।
६. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त का त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है।
७. परिग्रह के निमित्त कषाय ( क्रोध ) होता है, अतः परिग्रह के अभाव में क्षमा भाव रहता है।
८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, अत: उसमें आर्जव ( सरलता ) धर्म भी होता है।
९. अचेल में माया ( छिपाने की प्रवृत्ति ) नहीं होती, अत: उसके आर्जव ( सरलता ) धर्म भी होता है।
१०. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता है, अत: उसे घोर तप भी होता है।
___संक्षेप में अचेलकत्व के पालन में सभी दस श्रमण धर्मों एवं पंच महाव्रतों का पालन होता है।
पुन: अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं -
१. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीने, धूल और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से रहने वाले त्रस जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं। वस्त्र धारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है। जीवों से संसक्त वस्त्र धारण करने वाले के द्वारा उठने, बैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, बाँधने, धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा ( पीड़ा) होती है, जिससे महान् असंयम होता है।
२. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार सर्पो से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह इन्द्रियों ( कामवासना ) पर विजय प्राप्त करने में पूर्णतया सावधान रहता है
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