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________________ 92 : प्रो० सागरमल जैन की कल्याण-सामर्थ्य में भिन्नता है। हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि ईश्वरवादी परम्पराओं में भक्त और भगवान् में एक अन्तर बना रहता है। उपास्य सदैव उपास्य रहता है और उपासक सदैव उपासक। भक्त भगवान के अति निकट तो हो सकता है लेकिन कभी भी भगवान नहीं बन सकता है। जबकि जैन परम्परा में उपास्य और उपासक का भेद एक सीमा तक ही रहता है। एक दिन ऐसा होता है जब उपासक स्वयं उपास्य बन जाता है। यह भी सत्य है कि ईश्वर या परमात्मा की कल्पना साधना के आदर्श या साध्य के रूप में भी की जाती है। ईश्वर या परमात्मा का व्यक्तित्त्व समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणों से युक्त माना गया और उस जैसे व्यक्तित्त्व को प्राप्त करना ही साधकों का साध्य माना जाता है। भक्तिमार्गी परम्परा में इसे सारूप्य-मुक्ति कहा गया है। ईश्वरवादी परम्पराओं में यही भक्त या उपासक की चरम उपलब्धि है। पुनः ईश्वरवाद में ईश्वर साधना का आदर्श होते हुए भी सदैव आदर्शन ही रहता है क्योंकि भक्त और भगवान के मध्य एक दूरी सदैव बनी रहती है। जबकि जैन परम्परा में परमात्मा ऐसा कोई बाह्य-साध्य नहीं है जो व्यक्ति से भिन्न हो, उसकी साधना का साध्य, साधक आत्मा व्यक्ति से भिन्न नहीं है। वह उसी में है। उसे वही पाना है, जो उसकी सत्ता का सार है। ईश्वरवाद में साध्य या आदर्श ऐसा ईश्वर होता है, जिसकी सत्ता व्यक्ति से पृथक है। जीव और ईश्वर में अंश-अंशी भाव मानने पर भी अंशी ईश्वर को अंश जीव से अधिक व्यापक तो मानना ही होगा। अधिक व्यापक होने पर भी भिन्नता तो रहेगी। जैसे बूंद समुद्र में होते हुए भी समुद्र तो नहीं हो जाती है। बूंद चाहे समुद्र में हो या समुद्र से बाहर वह सदैव बूंद ही रहेगी जबकि जैन-परम्परा में प्रत्येक व्यक्ति का साध्य उसकी अपनी ही आत्मा का वह शुद्ध स्वरूप है, जिसे परमात्मा कहा जाता है। उसमें साध्य, साधक और साधन तीनों में अन्तर नहीं है। साध्य भी आत्मा है, साधन भी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं और साधक भी आत्मा ही है। साधना का अर्थ है आत्मा के द्वारा आत्मा की उपलब्धि। अशुद्ध आत्मा साधक है। आत्मा के शुद्धीकरण का प्रयास साधना है और अपने ही शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि साध्य है। इसी दृष्टि से सन्त आनन्दघन ने कहा है -- जिन सरूप थइ जिन आराधे, ते सहि जिनवर होवे रे। भृङ्गी इलिकाने चटकावे, ते भृणी जग जोते रे।। इस प्रकार जैन-साधना में साध्य या परमात्मा साधक से अभिन्न है। उसमें आदर्श मात्र आदर्श नहीं रहता, अपितु यथार्थ बन जाता है और यही उसकी विशेषता है। * * * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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