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________________ प्रो. सागरमल जैन 83 होने पर भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठा अप्रमत्त मनुष्य अहिंसक है। जबकि बाहय रूप में हिंसा न होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक ही है। एक और सकारात्मक अहिंसा को केवल इसलिए अस्वीकार करना कि उसमें कहीं न कहीं हिंसा का तत्त्व होता है किन्तु दूसरी ओर अपने अथवा अपने संघ और समाज के अस्तित्त्व के लिए अपवादों की सृजना करना न्यायिक दृष्टि से संगत नहीं है। यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि किसी मुनि के वैयक्तिक जीवन अथवा मुनि संघ के अस्तित्त्व के लिए अहिंसा के क्षेत्र में कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते है तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि लोककल्याण या प्राणीकल्याण के लिए जो प्रवृत्तियाँ संचालित की जाती हैं, उनमें भी अहिंसा के कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं। पुनः जो गहस्थ षटजीव-निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा का व्रत ग्रहण नहीं करता है और जो न केवल अपने लिए, अपितु अपने परिजनों के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णतः विरत नहीं है अथवा जो वस प्राणी की संकल्पजा हिंसा को छोड़कर आरम्भजा, उद्योगजा और विरोधजा हिंसा का पूर्ण त्यागी नहीं है, उसे दूसरे जीवों के रक्षण-पोषण और उनकी पीड़ा के निवारण के प्रयत्नों को केवल यह कहकर नकारने का कोई अधिकार नहीं है कि उनमें हिंसा होती है। हिंसा और अहिंसा के सीमा-क्षेत्र को सम्यक रूप से समझने के लिए हमें हिंसा के तीन रूपों को समझ लेना होगा-- 1. हिंसा की जाती है, 2. हिंसा करनी पड़ती है और 3. हिंसा हो जाती है। हिंसा का वह रूप जिसमें हिंसा की नहीं जाती वरन् हो जाती है -- हिंसा की कोटि में नहीं आता है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित रहता है, मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी जाती है। हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी यदि अन्य प्रवृत्तियों के करते हुए कोई हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं आती है। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी एक संकल्प की पूर्ति के लिए की जाने वाली क्रिया के दौरान सावधानी के बावजूद अन्य कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है तो व्यक्ति ऐसी हिंसा का उत्तरदायी नहीं माना जाता है। जैसे-- यदि गृहस्थ उपासक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाय अथवा किसी मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए सप्राणी की हिंसा हो जाय तो उन्हें उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उनके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है। जैन परम्परा में हिंसा के निम्न चार स्तर माने गये हैं -- 1. संकल्पजा, 2. विरोधजा, 3. उद्योगजा, 4. आरम्भजा। इनमें "संकल्पजा" हिंसा वह है जो की जाती है। जबकि विरोधजा, उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा, हिंसा की वे स्थितियाँ हैं जिनमें हिंसा करनी पड़ती है। फिर भी चाहे हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती हो, दोनों ही अवस्थाओं में हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत दबाव के स्वतन्त्ररूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट कोटि की है क्योंकि आक्रमणात्मक है। यह अनर्थ दण्ड है, अर्थात् अनावश्यक है, वह या तो मनोरंजन के लिए की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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