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प्रो. सागरमल जैन
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का कोई तत्त्व अवश्य ही रहता है। यही कारण था कि ऐसी स्थिति में उसे मौन रहने की सम्मति दी गयी। जैनागमों का यह प्रसंग एक ऐसा प्रसंग है जिसे सामान्य रूप से अहिंसा के नकारात्मक पक्ष की पुष्टि हेतु प्रस्तुत किया जाता रहा है। किन्तु इस आधार पर जैनधर्म में अहिंसा की नकारात्मक व्याख्या को स्वीकार करना भी एक भ्रान्ति ही होगी। क्योंकि हिंसा के अल्प - बहुत्व के विचार के साथ-साथ जैन आगमों में ऐसे भी उल्लेख हैं जो अनिवार्य बनी दो हिंसा में अल्प हिंसा को वरेण्य मानते हैं ।
यह सत्य है कि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण सेवा, दान, परोपकार आदि के प्रयत्नों में कहीं न कहीं हिंसा का तत्त्व अवश्य उपस्थित रहता है, क्योंकि ये सब प्रवृत्त्यात्मक है । जहाँ प्रवृत्ति है वहाँ क्रिया (योग) होगी, जहाँ क्रिया होगी वहाँ आस्रव होगा और जहाँ आसव होगा वहाँ बन्ध भी होगा। जहाँ बन्ध होगा वहाँ हिंसा होगी, चाहे वह स्व-स्वरूप की हिंसा ही क्यों न हो ? बस इस तर्क शैली ने अहिंसा की निषेधमूलक व्याख्या को बल दिया ।
प्रथम प्रश्न तो यह है कि क्या जैनधर्म एकान्त रूप से निवृत्त्यात्मक ही है ? दूसरे क्या समाधिमरण के अन्तिम क्षणों को छोड़कर जीवन में प्रवृत्ति का पूर्ण निषेध सम्भव है ? क्या महावीर का उपदेश एकान्त रूप से निवृत्ति या श्रमण जीवन के लिए ही है ? क्या जैनधर्म में जीवन के सभी रूप समान मूल्य एवं महत्त्व के हैं ?
जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि
आये इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीरता से चर्चा करें। जैनधर्म और दर्शन मूलतः अनेकान्त दृष्टि पर अधिष्ठित है और अनेकान्त दृष्टि कभी भी एकपक्षीय नहीं होती। दूसरे जब तक जीवन है तब तक पूर्ण रूप से निवृत्ति सम्भव नहीं है। प्रवृत्ति प्राणीय जीवन या हमारे जातीय अस्तित्व का लक्षण है। गीता (3/5) में भी कहा गया है कि जीवन में कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जिसमें प्राणी कर्म या क्रिया से पूर्णतः निवृत्त होते हैं। प्रवृत्ति प्राणी जीवन की अनिवार्यता है। जब तक हमारा सांसारिक अस्तित्त्व रहता है कहीं न कहीं प्रवृत्ति होती ही रहती है। पूर्ण निवृत्ति का आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो ? वह एक आदर्श ही है, यर्थाथ नहीं । जैनदर्शन के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के कुछ क्षण पूर्व के सांसारिक अस्तित्व को छोड़कर पूर्ण निवृत्ति का आदर्श कभी भी यर्थाथ नहीं बनता है। चाहे हम मुनि जीवन ही क्यों नहीं जिये-पूर्ण अहिंसा का पालन तो वहाँ भी सम्भव नहीं है। शारीरिक गतिविधियाँ, श्वसन, आहार-विहार और शारीरिक मलों का विसर्जन सभी में कहीं न कहीं हिंसा होती तो अवश्य है । यर्थाथ जीवन में प्रवृत्ति से या क्रिया से पूर्ण रूप से निवृत्त हो पाना सम्भव ही नहीं है और यदि यह सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में हमें प्रवृत्ति के उन रूपों को ही चुनना होगा, जिनमें हिंसा अल्पतम हो। जब प्रवृत्ति या हिंसा जीवन की एक अपरिहार्यता है, तो हमें यह विचारना होगा कि हमारी प्रवृत्ति की दशा ऐसी हो जिसमें हिंसा कम से कम हो। वह हिंसा कर्म आसव या कर्मबन्ध का हेतु न बने। यहीं से सकारात्मक अहिंसा को एक आधार मिलता है।
सकारात्मक अहिंसा विष मिश्रित दूध नहीं है
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