SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3. इसी कारण वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता था । 4. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकार करता था । पुनर्जन्म की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की सत्ता को भी अस्वीकृत करता था । प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा : 49 5. वह पुण्य पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों को भी अस्वीकार करता था, अतः कर्म सिद्धान्त का विरोधी था । 6. उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का समर्थक था। जैनों के अनुसार अक्रियावादी वे दार्शनिक थे, जो आत्मा को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे । आत्मवादी होकर भी शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल ( कर्म सिद्धान्त) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न चार्वाकी ही थे । इस प्रकार आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन के जो उल्लेख हमें उपलब्ध होते हैं, वे मात्र उसकी अवधारणाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं । उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह विचारधारा समीचीन नहीं है। किन्तु इन ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण और निरसन दोनों ही न तो तार्किक है और न विस्तृत । 'ऋषिभाषित' में प्रस्तुत 14 Jain Education International चार्वाक दर्शन 1 ऋषिभाषित का बीसवाँ "उक्कल" नामक सम्पूर्ण अध्ययन ही चार्वाक दर्शन की मान्यताओं और तज्जीवतच्छरीरवाद का तार्किक प्रस्तुतीकरण इस प्रकार करता है- जीव "पादतल से ऊपर से मस्तक के केशाग्र से नीचे तथा सम्पूर्ण शरीर की त्वचापर्यन्त आत्मपर्याय को प्राप्त हो जीवन जीता है और इतना ही मात्र जीवन है। जिस प्रकार बीज के भुन जाने पर उससे पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर उससे पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए जीवन इतना ही है (अर्थात् शरीर की उत्पत्ति से विनाश तक की कालावधि पर्यन्त ही जीवन है ) । न तो परलोक है न सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल विपाक है। जीव का पुनर्जन्म भी नहीं होता है। पुण्य और पाप जीव का संस्पर्श नहीं करते और इस तरह कल्याण और पाप निष्फल हैं।" 'ऋषिभाषित' में चार्वाकों की इस मान्यता की समीक्षा करते हुए पुनः कहा गया है कि "पादतल से ऊपर तथा मस्तक के केशाग्र से नीचे और शरीर की सम्पूर्ण त्वचा पर्यन्त आत्मपर्याय को प्राप्त यह जीव है, यह मरण शील है, किन्तु जीवन इतना ही नहीं है। जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उससे पुनः उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार शरीर के दग्ध हो जाने पर भी उससे पुनः उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए पुण्य-पाप का अग्रहण होने से सुख-दुख की सम्भावना का अभाव हो जाता है और पाप कर्म के अभाव में शरीर के दहन से शरीर के दग्ध होने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहाँ हम देखते हैं कि ग्रन्थकार चार्वाकों के उनके ही तर्क का उपयोग करके यह सिद्ध कर देता है कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy