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प्रकाशकीय विद्यापीठ के निदेशक प्रो० सागरमल जैन द्वारा लिखित शोध-निबन्धों के सार्वकालिक महत्त्व को देखते हुए लगभग तीन हजार पृष्ठों की सम्पूर्ण सामग्री को संग्रहीत कर, "सागर जैन-विद्या भारती के रूप में लगभग दस खण्डों में प्रकाशित कर विद्वद्जनों एवं सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की हमारी योजना है। इस योजना के अन्तर्गत. "सागर जैन-विद्या भारती" भाग १, पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रंथमाला - ७०, प्रथम संस्करण १६६४ प्रकाशित हो चुका है। इसी क्रम में इस ग्रंथमाला के ७८ वें पुष्प के रूप में सागर जैन-विद्या भारती का द्वितीय भाग विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है।
प्रो० जैन के लेखों/निबन्धों की एक लम्बी सूची है जो श्रमण, तुलसीप्रज्ञा, दार्शनिक त्रैमासिक, परामर्श, जिनवाणी आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय- समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। साथ ही आपके अनेक लेख, विभिन्न स्मृतिग्रन्थों, स्मारिकाओं, संगोष्ठियों एवं कॉन्फ्रेन्सों के आलेख-संग्रहों में भी प्रकाशित हुए हैं। प्रस्तुत संकलन में अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श, सकारात्मक अहिंसा की भूमिका और जैन धर्म का लेश्या सिद्धान्त : एक विमर्श, ये तीन लेख ऐसे हैं जिनका प्रणयन क्रमशः आचार्य जयन्तसेन सूरि जी महाराज, पं० कन्हैयालालजी लोढ़ा एवं डॉ० शान्ता जैन के ग्रन्थों की भूमिका के रूप में हुआ है। मन - शक्ति, स्वरूप और साधना तथा 'बुद्ध, व्यक्ति नहीं प्रक्रिया ये दो निबन्ध क्रमशः पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ एवं पं० जगन्नाथ जी उपाध्याय स्मृति ग्रन्थ के निमित्त लिखे गये थे। 'जैन आगमों में चार्वाक दर्शन' नामक लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग की एक संगोष्ठी के लिए लिखा गया था। आत्मवाद सम्बन्धी लेख लगभग ३० वर्ष पूर्व सुधर्मा में प्रकाशित हुआ था। 'जैन दर्शन में नैतिक सापेक्षता तथा निरपेक्षता' तथा 'सदाचार के शाश्वत मानदण्ड' ये दो लेख दार्शनिक त्रैमासिक में प्रकाशित हुए थे। हम इस सामग्री के लिए इन सभी ग्रन्थ लेखकों/सम्पादकों एवं पत्र-पत्रिकाओं के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं।
विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ. अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय तथा शोध सहायक श्री असीम कुमार मिश्र ने इस पुस्तक की प्रूफ रीडिंग में अपना सहयोग प्रदान किया, एतदर्थ हम उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करते
जून १६६५ वाराणसी
भूपेन्द्र नाथ जैन सचिव, पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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