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आपली
पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नए प्रकाशन : 175
पुस्तक - जैन विद्या के आयाम (Aspects of Jainology) खण्ड -५ प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ० अशोक कुमार सिंह
सम्पादक आकार
डबल डिमाई पेपरबैक, प्रथम संस्करण -
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१९६४
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पृष्ठ - १६६, मूल्य रु०२००.०० मात्र ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ५ श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा, कलकत्ता के हीरक जयन्ती एवं पूज्य सोहनलाल स्मारक पार्श्वनाथ शोधपीठ के स्वर्णजयन्ती वर्ष १६८८ के उपलक्ष्य में श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैनसभा कलकत्ता द्वारा आयोजित विद्वत्गोष्ठी हेतु प्रस्तुत निबन्धों का संकलन है। जिन निबन्धों का संकलन इस ग्रंथ में किया गया है, वे हैं
अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श - प्रो० सागरमल जैन, आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य - डॉ० सुदर्शनलाल जैन, निर्युक्ति साहित्य : एक परिचयडॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, मूलाचार में वर्णित आचार नियम - डॉ० अरुण प्रताप सिंह, हिन्दी मरुगुर्जर जैन साहित्य का महत्त्व और मूल्य - डॉ० शितिकण्ठ मिश्र, हिन्दी जैनपत्रकारिता का इतिहास एवं मूल्य डॉ० संजीव भानावत, अनेकान्त अहिंसा तथा अपरिग्रह की अवधारणाओं का मूल्यांकन : आधुनिक विश्व समस्याओं के सन्दर्भ में - डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा, प्राचीन जैन ग्रन्थों में कर्म सिद्धान्त का विकासक्रमडॉ० अशोक कुमार सिंह, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय डॉ० शिवप्रसाद, दिगम्बर जैन परम्परा में संघ, गण, गच्छ, कुल और अन्वय डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी', जैनधर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव एवं इतिहास - प्रो० नरेन्द्र भानावत् श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन - सुभाष कोठारी, Contribution of Jainism to Indian History by A.K. Chatterjee 3 Jahangir and Non-violence by Prof. R. N. Mehata.
ग्रन्थ में जैन विद्या के विविध आयामों पर विभिन्न विद्वान लेखकों द्वारा प्रकाश डाला गया है। संकलित निबन्ध उच्चकोटि के हैं एवं ग्रंथ संग्रहणीय है ।
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पुस्तक - हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, भाग २ लेखक - डॉ० शितिकण्ठ मिश्र
प्रकाशक
आकार
Jain Education International
पार्श्वनाथ शोधपीठ, ग्रंथमाला सं० ६६ सजिल्द डिमाई, प्रथम संस्करण
१६६४
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पृष्ठ - ६८४, मूल्य - रु० १८०.०० मात्र ।
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हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जैन लेखकों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है हिन्दी जैन साहित्य विशाल है। आदिकाल से लेकर १६वीं शती ( विक्रम ) तक लगभग ७०० पृष्ठों का एक भाग संस्थान से पहले ही प्रकाशित हो चुका है। इस द्वितीय भाग में मरुगुर्जर पुरानी हिन्दी के १६ शताब्दी के जैनकवियों एवं उनकी
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