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कहा जाता है कि बुद्ध न तो निर्वाण में स्थित हैं और न संसार में। इसका कारण यह है कि महायान परम्परा में बुद्ध के दो प्रमुख लक्षण माने गये हैं प्रज्ञा और करुणा । प्रज्ञा के कारण बोधिचित्त संसार में प्रतिष्ठित नहीं होता। दूसरे शब्दों में प्रज्ञा उन्हें संसार में प्रतिष्ठित नहीं होने देती । (कोई भी प्रज्ञायुक्त पुरुष दुःखमय संसार में रहना नहीं चाहेगा), किन्तु दूसरी ओर बुद्ध अपने करुणा- लक्षण के कारण निर्वाण में भी प्रतिष्ठित नहीं हो पाते। उनकी करुणा उन्हें निर्वाण में भी प्रतिष्ठित नहीं होने देती, क्योंकि कोई भी परमकारुणिक व्यक्तित्व दूसरों को दुःखों में लीन देखकर कैसे निर्वाण में प्रतिष्ठित रह सकता है।
अतः बोधिचित्त न तो वे निर्वाण प्राप्ति के कारण निष्क्रिय होते हैं और न लोकमंगल करते हुए भी संसार में आबद्ध होते हैं। यह बोधिचित्त भी व्यक्ति नहीं प्रक्रिया ही होता है जो निर्वाण को प्राप्त करके भी लोकमंगल के हेतु सतत् क्रियाशील बना रहता है और यही लोकमंगल के क्रियाशील बोधि प्राप्त चित्त सन्तति ही बुद्ध या बोधिसत्व है । अतः बुद्ध नित्य - व्यक्तित्त्व नहीं अपितु नित्य प्रक्रिया है और बुद्ध की नित्यता का अर्थ लोकमंगल की प्रक्रिया की नित्यता है ।
1.
प्रज्ञाचक्षु पं० जगन्नाथ उपाध्याय की दृष्टि में बुद्ध : 169
सन्दर्भ
द्रष्टव्य तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार, सम्पादक डॉ० सागरमल जैन, लेखक डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त, प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी - 5, पृ0
169-172
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2.
3. सद्धर्मपुण्डरीक, पृ0 206-207 महायानसूत्रालंकार, पृ0 45-46
4.
द्रष्टव्य बौद्धधर्म के विकास का इतिहास, पृ0 341
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