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________________ प्रज्ञाचक्षु पं0 जगन्नाथ उपाध्याय की दृष्टि में बुद्ध : 167 पा रहे थे कि अनात्मवादी बौद्ध दर्शन के सांचे में इन विसंगतियों का निराकरण कैसे सम्भव हो सकता है ? इस सम्बन्ध में हमने बौद्ध-विद्या एवं दर्शन के विद्वानों से विचार-विमर्श किये परन्तु ऐसा कोई समाधान नहीं मिला जो हमारे मानस को पूर्ण सन्तोष दे सके। __ इन्हीं समस्याओं को लेकर हमने अन्ततोगत्त्वा वाराणसी के बौद्धधर्म एवं दर्शन के वरिष्ठ विद्वान् पं0 जगन्नाथजी उपाध्याय की सेवा में उपस्थित होने का निश्चय किया और एक दिन उनके पास पहुँच ही गये। हमने उनसे इन समस्याओं के सन्दर्भ में लगभग दो घण्टे तक चर्चा की। इन समस्याओं के सम्बन्ध में उनसे हमें जो उत्तर प्राप्त हुए, उनसे न केवल हमें सन्तोष ही हुआ, बल्कि यह भी बोध हुआ कि पं0 जगन्नाथजी उपाध्याय ऐसे बहुश्रुत विद्वान् हैं, जो बौद्धधर्म एवं दर्शन को उसके ही धरातल पर खड़े होकर समझने और उसके सम्बन्ध में उठायी गयी समस्याओं का उसकी ही दृष्टि से समाधान देने की सामर्थ्य रखते हैं। सम्भवतः उनके स्थान पर दूसरा कोई पण्डित होता तो वह इन समस्याओं को बौद्धदर्शन की कमजोरी कहकर अलग हो जाता। किन्तु उन्होंने जो प्रत्युत्तर दिये, वे इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने निष्ठापूर्वक श्रमण-परम्परा का और विशेष रूप से बौद्ध परम्परा का गम्भीर अध्ययन किया था। यद्यपि नित्य आत्म तत्त्व के अभाव में कर्म-फल, पुनर्जन्म, निर्वाण आदि की समस्याओं का समाधान बौद्धदर्शन के अनात्मवादी और क्षणिक ढांचे में कैसे सम्भव है ? इस समस्या के समाधान के लिए प्रो0 हिरियन्ना ने अपने ग्रन्थ "भारतीय दर्शन के मूलतत्त्व" (Elements of Indian Philosophy ) में किसी सीमा तक एक समाधान देने का प्रयत्न किया है। किन्तु पण्डित जगन्नाथजी उपाध्याय ने बुद्धत्व की समस्याओं का इसी दृष्टि से जो समाधान प्रस्तुत किया उसके आधार पर वे निश्चित ही बौद्ध दर्शन के प्रत्युत्पन्नमति के श्रेष्ठ दार्शनिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि "बुद्ध" की अवधारणा के सन्दर्भ में उपर्युक्त समस्याओं का समाधान न तो हमें ग्रन्थों से और न विद्वानों से प्राप्त हो सका था। उपर्युक्त समस्याओं के सन्दर्भ से प्रज्ञापुरुष पं0 जगन्नाथजी उपाध्याय ने जो समाधान दिये थे, उनकी भाषा चाहे आज हमारी अपनी हो, परन्तु विचार उनके ही हैं। वस्तुतः हम उनकी ही बात अपनी भाषा में व्यक्त कर रहे हैं -- यदि हमें इस बात का जरा भी एहसास होता कि इतने सुन्दर समाधान प्राप्त होंगे और पं0 जी हम लोगों के बीच से इतनी जल्दी विदा हो जायेंगें ? तो हम उनकी वाणी को रिकार्ड करने की पूर्ण व्यवस्था कर लेते। किन्तु आज हमारे बीच न तो वह प्रतिभा है और न इस सम्बन्ध में उनके शब्द ही हैं। फिर भी हम जो कुछ लिख रहे हैं, वह उनका ही कयन है। यद्यपि प्रस्तुतीकरण की कमी हमारी अपनी हो सकती है। उनका कहना था कि बुद्धत्व की अवधारणा के सन्दर्भ में आपके द्वरा प्रस्तुत इन सभी असंगतियों का निराकरण चित्तसन्तति या चित्तधारा के रूप में किया जा सकता है। हम बुद्ध को व्यक्ति न मानें, अपितु परार्थ क्रियाकारित्व की एक प्रक्रिया मानें। बुद्ध एक नित्य-व्यक्तित्व (An Eternal Personality) नहीं, अपितु एक प्रक्रिया (A Process ) है। बुद्ध के जो तीन या चार काय माने गये है, वे इस प्रक्रिया के उपाय या साधन है। धर्मकाय की नित्यता की जो बात कही गयी है, वह स्थितिगत नित्यता नहीं अपितु क्रियागत नित्यता है। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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