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________________ 160 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 निम्नतम रूप से उच्चतम रूप तक एक निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है-- 1. दूसरों को जितना अधिक दुःख दिया जा सकता है, देने की इच्छा। 2. दूसरों को किसी विशेष प्रकार का अस्थायी दुःख उत्पन्न करने की इच्छा। 3. नैतिक दृष्टि से अनुचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। 4. ऐसा सुख प्राप्त करने की इच्छा जो नैतिक दृष्टि से उचित न हो, लेकिन अनुचित भी न हो। 5. नैतिक दृष्टि से उचित सुख प्राप्त करने की इच्छा। 6. दूसरों को सुख देने की इच्छा । 7. कोई शुभ कार्य करने की इच्छा। 8. अपने नैतिक कर्तव्य के परिपालन की इच्छा।27 रास अपने इस वर्गीकरण में जैन लेश्या सिद्धान्त के काफी निकट आ जाते हैं। जैन विचारक और रास दोनों स्वीकार करते हैं कि नैतिक शुभ का समन्वय हमारे कार्यों, इच्छाओं, संवेगों तथा चरित्र से है। यही नहीं दोनों व्यक्ति के नैतिक विकास का मूल्यांकन इस बात से करते हैं कि व्यक्ति के मनोभावों एवं आचरण में कितना परिवर्तन हुआ है और वह विकास की किस भूमिका में स्थित है। रास के वर्गीकरण के पहले स्तर की तुलना कृष्ण लेश्या की मनोभूमि से की जा सकती है, दोनों ही दृष्टिकोणों के अनुसार इस स्तर में प्राणी की मनोवृत्ति दसरों को यथासम्भव दःख देने की होती है। जैन विचारणा का जामन के वक्ष वाला उदाहरण भी यही बताता है कि कृष्णलेश्या वाला व्यक्ति उस जामुन के वृक्ष के मूल को प्राप्त करने की इच्छा रखता है अर्थात् जितना विनाश किया जा सकता है या जितना दुःख दिया जा सकता है, उसे देने की इच्छा रखता है। दूसरे स्तर की तुलना नील लेश्या से की जा सकती है। रास के अनुसार व्यक्ति इस स्तर में दूसरों को अस्थायी दुःख देने की इच्छा रखता है, जैनदृष्टि के अनुसार भी इस अवस्था में प्राणी दूसरों को दुःख उसी स्थिति में देना चाहता है, जब उनके दुःख देने से उसका स्वार्थ सधता है। इस प्रकार इस स्तर पर प्राणी दूसरों को तभी दुःख देता है जब उसका स्वार्थ उनसे टकराता हो । यद्यपि जैन दृष्टि यह स्वीकार करती है कि इस स्तर में व्यक्ति अपने छोटे से हित के लिए दूसरों का बड़ा अहित करने में नहीं सकुचाता। जैन विचारणा के उपर्युक्त उदाहरण में बताया गया है कि नील लेश्या वाला व्यक्ति फल के लिए समूल वृक्ष का नाश तो नहीं करता, लेकिन उसकी शाखा को काट देने की मनोवृत्ति रखता है अर्थात् उस वृक्ष का पूर्ण नाश नहीं, वरन् उसके एक भाग का नाश करता है। दूसरे शब्दों में आंशिक दुःख देता है। रास के तीसरे स्तर की तुलना जैन दृष्टि की कापोतलेश्या से की जा सकती है। जैन दष्टि यह स्वीकार करती है कि नील और कापोत लेश्या के इन स्तरों में व्यक्ति सुखापेक्षी होता है, लेकिन जिन सुखों की वह गवेषणा करता है, वे वासनात्मक सुख ही होते हैं। दूसरे, जैन विचारणा यह भी स्वीकार करती है कि कायोत लेश्या के स्तर तक व्यक्ति अपने स्वार्थों या सुखों की प्राप्ति के लिए किसी नैतिक शुभाशुभता का विचार नहीं करता है। वह जो कुछ भी करता है वह मात्र स्वार्थ प्रेरित होता है। रास के तीसरे स्तर में व्यक्ति नैतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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