SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118 : श्रमण / अप्रैल-जून/1995 जैन परम्परा के अनुरूप बौद्ध और हिन्दू परम्पराओं में भी मनोभूमियों का उल्लेख उपलब्ध है। बौद्ध दर्शन में जैन-दर्शन के समान ही चित्त की 1. कामावचर, 2 रूपावचर, 3. अरूपावचर और 4. लोकोत्तर इन चार अवस्थाओं का उल्लेख है जो कि क्रमशः विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन के समतुल्य हैं। योग-दर्शन में मन की निम्न पाँच अवस्थाओं उल्लेख है 1. क्षिप्त, 2. मूढ़, 3. विक्षिप्त, 4. एकाग्र और 5. निरुद्ध । इसमें भी यदि हम क्षिप्त और मूढ़ चित्त को एक ही वर्ग में रखें, तो तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ भी जैन-दर्शन से समानता ही परिलक्षित होती है। जिसे निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है जैन-दर्शन बौद्ध-दर्शन योग-दर्शन -- विक्षिप्त यातायात श्लिष्ट सुलीन 1. 2. कामावचर रूपावचर अरूपावचर लोकोत्तर जैन-दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त और योग-दर्शन के क्षिप्त एवं मूढ़ चित्तसमानार्थक हैं, क्योंकि सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं की बहुलता तथा विकलता रहती है। इसी प्रकार यातायात मन, रूपावचर चित्त और विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक ही हैं क्योंकि सभी ने इसे चित्त की अल्पकालिक, प्रयाससाध्य स्थिरता की अवस्था माना है । यहाँ वासनाओं का वेग तथा चित्त विक्षोभ तो बना रहता है किन्तु उसमें कुछ मन्दता अवश्य आ जाती है। तीसरे स्तर पर जैन-दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध-दर्शन का अरूपावचर चित्त और योग-दर्शन का एकाग्रचित्त भी समकक्ष है क्योंकि इसे सभी ने मन की स्थिरता और अप्रमत्तता की अवस्था माना है । चित्त की अन्तिम अवस्था, जिसे जैन-दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग-दर्शन में निरुद्ध चित्त कहा गया है, स्वरूप की दृष्टि से समान ही है क्योंकि इसमें सभी ने वासना-संस्कार एवं संकल्प - विकल्प पूर्ण है 1 -- वस्तुतः सभी साधना पद्धतियों का चरम लक्ष्य मन की उस वासना - शून्य, निर्विकार, निर्विचार एवं अप्रमत्त दशा को प्राप्त करना है, जिसे सभी ने समाधि के सामान्य नाम से अभिहित किया है। साधना है. वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्ता की ओर तथा चित्त - क्षोभ से चित्त-शान्ति की ओर प्रगति । मन का यह स्वरूप विश्लेषण हमें इस दिशा में निर्देशित कर सकता है किन्तु प्रयास तो स्वयं ही करने होंगे। साधना केवल स्व-प्रयासों से ही फलवती होती है। उत्तराध्ययन सूत्र, 29/56 योगशास्त्र (हेमचन्द्र ), 4 / 38 Jain Education International क्षिप्त एवं मूढ़ विक्षिप्त एकाग्र निरुद्ध सन्दर्भ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy