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________________ 114 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 गीता कहती है कि यद्यपि विषयों को ग्रहण नहीं करने वाले अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषयों के उपभोग करने से रोक देने वाले व्यक्तियों के द्वारा विषयों के भोग का तो निग्रह हो जाता है, लेकिन उनका रस (आसक्ति) बना रहता है। अर्थात् वे मूलतः नष्ट नहीं हो पाते और अनुकूल परिस्थितियों में पुनः व्युत्थित हो जाते हैं। "रसवर्जरसोऽत्यस्य" का पद स्पष्ट रूप से यह संकेत करता है कि गीता में नैतिक विकास का वास्तविक मार्ग निग्रह का नहीं है। न केवल गीता के आचार-दर्शन में दमन को अनुचित माना गया है वरन् बौद्ध और जैन विचारणाओं में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है। बुद्ध के मध्यममार्ग के उपदेश का सार यही है कि आध्यात्मिक विकास के मार्ग में वासनाओं का दमन इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना उनसे ऊपर उठ जाना। वासनाओं के दमन का मार्ग और वासनाओं के भोग का मार्ग दोनों ही बुद्ध की दृष्टि में साधना के सच्चे मार्ग नहीं है। तथागत बुद्ध ने जिस मध्यममार्ग का उपदेश दिया उसका स्पष्ट आशय यही था कि साधना में दमन पर जो अत्यधिक बल दिया जा रहा था उसे कम किया जाय। बौद्ध साधना का आदर्श तो चित्तशान्ति है जबकि दमन तो चित्तक्षोभ या मानसिक इन्द्र को ही जन्म देता है। बौद्धाचार्य अनंगवज्र कहते हैं कि "चित्त-क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति नहीं होती अतः इस तरह बरतना चाहिए कि जिससे मानसिक क्षोभ उत्पन्न न हो।"78 दमन की प्रक्रिया चित्तक्षोभ की प्रक्रिया है, चित्तशान्ति की नहीं। बोधिचर्यावतार की भूमिका में लिखा है कि बुद्ध के धर्म में जहाँ दूसरे को पीड़ा पहुँचाना मना है वहाँ अपने को पीड़ा देना भी अनार्य कर्म कहा गया है। सौगत तन्त्र ने आत्मपीड़ा के मार्ग को ठीक नहीं समझा। क्या दमन मात्र से चित्त-विक्षोभ सर्वथा चला जाता होगा ? दबायी हुई वृत्तियाँ जाग्रतावस्था में न सही स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही चित्त को मथ डालती होंगी।79 जब तक चित्त में भोग-लिप्सा है तब तक चित्तक्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध विचारणा को दमन का प्रत्यय अभिप्रेत नहीं है। दमन के विरोध में उठ खड़ी बौद्ध विचारणा की चरम परिणति चाहे वामाचार के रूप में हुई हो, लेकिन फिर भी उसके दमन के विरोध को अवास्तविक नहीं कहा जा सकता है। चित्तशान्ति के साधनामार्ग में दमन का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं हो सकता। जहाँ तक जैन विचारणा का प्रश्न है वह अपनी पारिभाषिक भाषा में स्पष्ट रूप से कहती है कि "साधना का सच्चा मार्ग उपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है।" जैन दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक मार्ग वह मार्ग- है जिसमें मन की वृत्तियों, वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाता है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही 'औपशमिक मार्ग है। जिस प्रकार आग को राख से ढक दिया जाता है उसी प्रकार उपशम में कर्म-संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिकता के मार्ग पर आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो यह दमन (Repression) का मार्ग है। साधना के क्षेत्र में वासना-संस्कार को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है लेकिन यह मनःशुद्धि का वास्तविक मार्ग नहीं है, यह तो मानसिक गन्दगी को ढकना मात्र है, छिपाना मात्र है। जैन विचारकों ने गुणस्थान प्रकरण में बताया है कि यह वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की अवस्था नैतिक विकास में आगे तक नहीं चलती है। जैन विचारणा यह मानती है कि ऐसा साधक पदच्युत हो जाता है। जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के विकास में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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