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________________ 104 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 व्यक्ति के मन और शरीर के सम्बन्ध में एक प्रकार का मनोभौतिक समानान्तरवाद है-- यद्यपि वे मानसिक और शारीरिक तथ्यों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणा को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है -- जैन दृष्टिकोण जड़ और चेतन के मध्य रहे हुए तात्विक विरोध के समन्वय का एक प्रयास है जो वैयक्तिक मन एवं शरीर के मध्य पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणा की संस्थापना करता है।18 इस प्रकार हमने यह देखा कि जैन विचारणा में बाह्य भौतिक जगत् से सम्बन्धित "मन" का दव्यात्मक पक्ष किस प्रकार अपने भावात्मक पक्ष को प्रभावित करता है और "जीवात्मा" को बन्धन में डालता है। लेकिन मन जिन साधनों के द्वारा बाह्य जगत् से सम्बन्ध बनाता है वे तो इन्द्रियाँ हैं, मन की विषय-सामग्री तो इन्द्रियों के माध्यम से आती है। बाह्य जगत् से मन का सीधा सम्बन्ध नहीं होता है वरन् वह इन्द्रियों के माध्यम से जागतिक विषयों से अपना सम्बन्ध बनाता है। मन जिस पर कार्य करता है वह सारी सामग्री तो इन्द्रिय-संवेदन से प्राप्त होती है। अतः मन के कार्य के सम्बन्ध में विचार करने से पहले हमें इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी थोड़ा विचार कर लेना होगा। मन के साधन-इन्द्रियाँ इन्द्रिय शब्द के अर्थ की विशद विवेचना न करते हुए यहाँ हम केवल यही कहें कि "जिन-जिन कारणों की सहायता से जीवात्मा विषयों की ओर अभिमुख होता है अथवा विषयों के उपभोग में समर्थ होता है वे इन्द्रियाँ हैं।" इस अर्थ को लेकर गीता या जैन आगमों में कहीं कोई विवाद नहीं पाया जाता। यद्यपि कुछ विचारकों की दृष्टि में इन्द्रियाँ "मन" का साधन या "करण" मानी जाती हैं। इन्द्रियों की संख्या जैन दृष्टि में इन्द्रियाँ पाँच मानी जाती हैं -- (1) श्रोत्र, (2) चक्षु, ( 3 ) घ्राण, (4) रसना और (5) स्पर्शन। सांख्य विचारणा में इन्द्रियों की संख्या 11 मानी गई है --5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ और 1 मन। जैन विचारणा में 5 ज्ञानेन्द्रियाँ तो उसी रूप में मानी गई हैं किन्तु मन नोइन्द्रिय (Quasi sense-organ) कहा गया है। पाँच कर्मेन्द्रियों की तुलना -- उनकी 10 बल की धारणा में वाक्बल, शरीरबल एवं श्वासोच्छ्वास बल से की जा सकती है।19 बौद्ध ग्रन्थ विशुद्धिमग्गो में इन्द्रियों की संख्या 22 मानी गई है।20 बौद्ध विचारणा में उक्त पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त पुरुषत्व, स्त्रीत्व, सुख-दुःख तथा शुभ एवं अशुभ आदि को भी इन्द्रिय माना गया है। जैन दर्शन में इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती है -- (1) द्रव्येन्द्रिय (2) भावेन्द्रिय। इन्द्रियों की आंगिक संरचना (Structural aspect) द्रव्येन्द्रिय कहलाती है और आन्तरिक क्रिया शक्ति (Functional aspect) भावेन्द्रिय कहलाती है। इनमें से प्रत्येक के पुनः उप विभाग किये गये हैं जिन्हें संक्षेप में निम्न सारिणी से समझा जा सकता है : इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय..उपकरण (इन्द्रिय रक्षक अंग) निवृत्ति (इन्द्रिय अंग) लब्धि (शक्ति) बहिरंग अंतरँग बहिरंग अंतरंग उपयोग (चेतना) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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