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________________ मन शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण : 99 क्रियाओं (योग) का अभाव है दूसरी ओर मनोभाव से पृथक् कायिक और वाचिक कर्म एवं कर्म परमाणु भी बन्धन के कारण नहीं होते हैं । बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव आत्मिक अवश्य माने गये हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए कहा गया है कि बिना चेतन - सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते हैं। चेतन सत्ता रागादि के उत्पादन का निमित्त कारण अवश्य है लेकिन बिना मन के वह रागादि भाव उत्पन्न नहीं कर सकती। इसीलिए यह कहा गया कि मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है । दूसरे हिन्दू, बौद्ध और जैन आचार - दर्शन इस बात में एकमत हैं कि बन्धन का कारण अविद्या (मोह) है। अब प्रश्न यह है कि इस अविद्या का वास स्थान कहाँ है ? आत्मा को इसका वास स्थान मानना भ्रान्ति होगी, क्योंकि जैन और वेदांत दोनों परम्पराओं में आत्मा का स्वभाव तो सम्यग्ज्ञान है, मिथ्यात्व, मोह किंवा अविद्या आत्माश्रित हो सकते हैं लेकिन वे आत्म- गुण नहीं हैं और इसलिए उन्हें आत्मगत मानना युक्तिसंगत नहीं है। अविद्या को जड़ प्रकृति का गुण मानना भी भ्रान्ति होगी क्योंकि वे ज्ञानाभाव ही नहीं वरन् विपरीत ज्ञान भी है। अतः अविद्या का वासस्थान मन को ही माना जा सकता है जो जड़ और चैतन्य के संयोग से निर्मित है। अतः उसी में अविद्या निवास करती है उसके निवर्तन पर शुद्ध आत्मदशा में अविद्या की सम्भावना किसी भी स्थिति में नहीं हो सकती । मन आत्मा के बन्धन और मुक्ति में किस प्रकार अपना भाग अदा करता है, इसे निम्न रूपक से समझा जा सकता है। मान लीजिए, कर्मावरण से कुंठित शक्ति वाला आत्मा उस आँख के समान है जिसकी देखने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। जगत एक श्वेत वस्तु है और मन ऐनक है। आत्मा को मुक्ति के लिए जगत के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करना है लेकिन अपनी स्वशक्ति के कुंठित होने पर वह स्वयं तो सीधे रूप में यथार्थ ज्ञान नहीं पा सकता। उसे मन रूपी चश्मे की सहायता आवश्यक होती है लेकिन यदि ऐनक रंगीन काँचों का हो तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान न देकर भ्रांत ज्ञान ही देता है। उसी प्रकार यदि मन रागद्वेषादि वृत्तियों से दूषित (रंगीन ) है तो वह यथार्थ ज्ञान नहीं देता और हमारे बन्धन का कारण बनता है । लेकिन यदि मन रूपी ऐनक निर्मल है तो वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान देकर हमें मुक्त बना देता है । जिस प्रकार ऐनक में बिना किसी चेतन आँख के संयोग के देखने की कोई शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार जड़ मन - परमाणुओं में भी बिना किसी चेतन आत्मा के संयोग के बन्धन और मुक्ति की कोई शक्ति नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि जिस प्रकार ऐनक से देखने वाले नेत्र है लेकिन विकास या रंगीनता का कार्य ऐनक में है, उसी प्रकार बन्धन के कारण रागद्वेषादि विकार न तो आत्मा के कार्य है और न जड़ तत्त्व के कार्य हैं वरन् मन के ही कार्य है। Jain Education International जैन विचारणा के समान गीता में भी यह कहा गया है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस "काम" के वासस्थान हैं। इनके आश्रयभूत होकर ही यह काम ज्ञान को आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित किया करता है। 12 ज्ञान आत्मा का कार्य है लेकिन ज्ञान में जो विकार आता है वह आत्मा का कार्य न होकर मन का कार्य है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए, जहाँ गीता में विकार या काम का वासस्थान मन को माना गया है वहाँ जैन विचारणा में विकार या कामादि का वासस्थान आत्मा को ही माना गया है। वे मन के कार्य अवश्य है लेकिन उनका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001685
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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