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________________ 28 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जैन-साधना में भगवान् की स्तुति निरर्थक है । जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी बनती है। जैन विचारकों ने यह भी स्वीकार किया है। कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है । यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र ( २६ / ६० ) में कहा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शन-विशुद्धि होती है। यह भी कहा है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आचार्य भद्रबाहु ने इस बात को बड़े ही स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम-स्मरण से पापों का पुंज नष्ट होता है (आवश्यक नियुक्ति १११० ) । आचार्य विनयचन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं- पाप - पराल को पुंज वण्यो अति, मानो मेरू आकारो । ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो ।। इस प्रकार जैन धर्म में स्तुति या गुण-संकीर्तन को पाप का प्रणाशक तो माना गया किन्तु इसे ईश्वरी कृपा का फल मान लेना उचित नहीं है। जैनधर्म के अनुसार व्यक्ति के पापों के क्षय का कारण परमात्मा की कृपा नहीं, किन्तु प्रभु स्तुति की माध्यम से हुए उसके शुद्ध आत्म-स्वरूप का बोध है। प्रभु की स्तुति के माध्यम से जब साधक अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को जान लेता है, अपनी शक्ति की पहचान लेता है तो वह ज्ञाता - द्रष्टा भाव में अर्थात् आत्म-स्वभाव में स्थित हो जाता है । फलतः वासनायें स्वतः ही क्षीण होने लगती हैं। इस प्रकार जैनधर्म में स्तुति से पापों का क्षय और आत्म-विशुद्धि तो मानी गई किन्तु इसका कारण ईश्वरीय कृपा नहीं, अपितु अपने शुद्ध स्वरूप का बोध माना गया । Jain Education International इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में स्तवन या गुण-संकीर्तन के रूप में जिस भक्ति तत्त्व का विकास हुआ, वह निष्काम भक्ति का ही एक रूप था । जैनधर्म और सकाम भक्ति निष्काम भक्ति की यह अवधारणा आदर्श होते हुए भी सामान्यजन के लिए दुःसाध्य ही है। सामान्यजन एक ऐसे भगवान की कल्पना करता है जो प्रसन्न होकर उसके दुःखों को दूर कर उसे इहलौकिक सुख प्रदान कर सके । यही कारण रहा कि जैनधर्म में स्तुति की निष्कामता धीरे-धीरे कम होती गयी और स्तुतियाँ तथा प्रार्थनायें ऐहिक लाभ के साथ जुड़ती गयी। जैन परम्परा में स्तुति का सबसे प्राचीन रूप सूत्रकृतांग (ई.पू. 4 - 3शती) के छठें अध्ययन में 'वीर-स्तुति' के नाम से उपलब्ध है। इसमें महावीर के गुणों का संर्कीर्तन तो है किन्तु उसमें कहीं भी कुछ प्राप्त करने की कामना नही की गई है। इसी प्रकार शक्रस्तव अर्थात् इन्द्र के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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