________________
20
श्रमण, अप्रैल-जून, १८८
वाले जैन दर्शन में इस दैत के समाप्त होने का अर्थ अद्वैत वेदान्त की तरह भक्त की वैयक्तिक सत्ता का ब्रह्म में विलय नहीं है। साथ ही जैनदर्शन द्वैतवादियों या विशिष्टाद्वैतवादियों की तरह यह भी नहीं मानता है कि भक्ति की चाम निष्पत्ति में भी भक्त और भगवान का द्वैत बना रहता है, चाहे वह सारूप्य मुक्ति को ही क्यो । प्राप्त कर लें।
जैनदर्शन के अनुसार भक्ति की चरम निष्पत्ति आत्मा द्वारा अपने ही निरावरण शुद्ध स्वरूप या परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना है-- वह स्वयं परमात्मा बन जाना है। वह स्वयं के द्वारा स्वयं को पाना है। भक्ति और प्रेम :
सामान्यतया भक्ति में अनुराग या प्रेम को एक आवश्यक तत्त्व माना गया है। परमात्मा के प्रति निश्छल प्रेम भक्ति का आधार है। किन्तु यहा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या वीतरागता के उपासक जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा के साथ प्रेम को अपरिहार्य माना जा सकता है। यह सत्य है कि अनुराग या प्रेम की उत्कटता ही भक्ति का रूप लेती है किन्तु एक ओर राग के प्रहाण या वीतरागदशा की प्राप्ति का प्रयास अं दूसरी ओर अनुराग या प्रेम की साधना -- ये दोनों एक साथ कैसे सम्भव है ? वीतरागता का साधक राग या अनुराग से कैसे जुड़ सकता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि जैन परम्परा में जहाँ भक्ति भाव की अभिव्यक्ति हुई है, वहां किसी न किसी रूप में तीर्थंकर प्रभु के प्रति प्रेम या अनुराग की चर्चा अवश्य हुई है। जैन परम्परा में राग दो प्रकार का माना गया है --
(1) प्रशस्तराग और (2) अप्रशस्त राग। ___ यदि हम भक्ति को रागात्मक सम्बन्ध या अनुराग मानते हैं तो जैनधर्म में भक्ति का स्थान इसी प्रशस्तराग के अर्न्तगत हो सकता है। किन्तु ऐसा प्रशस्त राग भी जैन साधना का आदर्श नहीं माना जा सकता है। जैन परम्परा में गौतम से अधिक श्रेष्ठ भक्त और कौन हो सकता है? महावीर के प्रति उनकी अनन्य भक्ति या अनुराग लोकविश्रुत है। किन्तु जैन विचारक यह मानते हैं कि ऐसा प्रशस्त राग भी मोक्ष मार्ग के पथिक के लिए बाधक ही है। गौतम की महावीर के प्रति यह अनन्य भक्ति या रागात्मकता उनकी मोक्ष प्राप्ति में बाधक ही मानी गयी है। वे महावीर के जीवित रहते वीतरागदशा या कैवल्य को उपलब्ध नहीं कर सके। महावीर ने स्वयं कहा था कि स्नेह या अनुराग तो मोक्ष मार्ग में एक अर्गला है ( मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्ज सिंखला-कल्पसूत्रटीका, विनयविजय, पृ.१२०)। जैन परम्परा में भक्ति श्रद्धा पर आधारित तो मानी गयी, किन्तु उसे राग या प्रेम रूप में स्वीकार नहीं किया गया। यह एक अलग बात है कि परवर्ती जैनाचार्यों ने भक्ति के इस रागात्मक स्वरूप को अपनी परम्परा में स्थान दिया। यह भी ठीक है कि एक भावुक आदमी वासनात्मक प्रेम या अप्रशस्त राग से छुटकारा पाने के लिए प्रशस्त राग का सहारा ले, किन्तु अन्ततोगत्वा हमें यही मानना होगा कि वीतरागता की उपासक जैन परम्परा में रागात्मकता को भक्ति का आधार नहीं माना जा सकता है। प्रेम चाहे कैसा भी हो, वह बन्धन है अतः उसे अतिक्रान्त करना आवश्यक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org