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जैनधर्म-दर्शन का सारतत्त्व
- प्रो. सागरमल जैन
जैनधर्म का उद्भव और विकास
जिन के द्वारा प्रवर्तितधर्म जैनधर्म कहा जाता है और जो अपनी इन्द्रियों, वासनाओं और इच्छाओं पर विजय पा लेता है, वह जिन है। जैनधर्म का एक प्राचीन नाम निर्गन्थ धर्म भी है। अशोक आदि के अतिप्राचीन शिलालेखों में इसका इसी नाम से उल्लेख मिलता है। निर्गन्थ शब्द का अर्थ है -- जिसके हृदय में छल-कपट, राग-द्वेष, अहंकार, लोभ आदि की कोई गाँठ नहीं है और जो आन्तरिक और बाढ्य परिग्रह से मुक्त है, वही निर्गन्थ है। जैनधर्म को आहत धर्म भी कहते हैं। अर्हत् शब्द का अर्थ है -- जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है और जो अपनी आध्यात्मिक पवित्रता के कारण जगत का वन्दनीय बन गया, वह अर्हत् है और उसका उपासक आहेत। जहाँ वैदिकधर्म में यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड पर विशेष बल दिया गया वही श्रमणधर्म, विशेष रूप से जैनधर्म में तप, त्याग व वैराग्य पर अधिक बल दिया गया। अतः वैदिकधर्म को प्रवृत्ति मूलक और श्रमणधर्म को निवृत्ति मूलकधर्म भी कहते हैं। निवृत्ति मूलकधर्म का मुख्य प्रयोजन होता है, सांसारिक दुःखों से मुक्ति हेतु संन्यास के मार्ग का अनुसरण करना। इस प्रकार जैनधर्म संन्यास प्रधान या वैराग्य प्रधान धर्म है।
मानव व्यक्तित्व में दो तत्त्व पाये जाते हैं -- 1. वासना और 2. विवेक। मनुष्य में वासनाओं की उपस्थिति उसे दैहिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति की ओर अर्थात् भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि की ओर प्रेरित करती है। जबकि विवेक यह बताता है कि इच्छाएँ अनन्त हैं, उनकी पूर्ण संतुष्टि कभी भी संभव नहीं है, इसलिए शान्ति के इच्छुक मनुष्य को इच्छाओं की संतुष्टि की दिशा में न भागकर इच्छाओं का संयम करना चाहिए। इच्छाओं एवं वासनाओं के संयम की यही बात संन्यास मूलक जैनधर्म की उत्पत्ति का आधार
यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि जैनधर्म का प्रारम्भ कब से हुआ। इसके प्रथम प्रवक्ता कौन हैं ? जैन परम्परा के अनुसार इस काल-चक्र में जैनधर्म की स्थापना भगवान ऋषभदेव ने की। ऋषभदेव के उल्लेख ऋग्वेद एवं पुराण साहित्य में भी है। अतः जैनधर्म संसार का एक अति प्राचीन धर्म है। जैन परम्परा के अनुसार इस कालचक्र में संन्यास मूलक धर्म का प्रथम उपदेश भगवान ऋषभदेव ने दिया था। श्रीमद्भागवत् में भी ऋषभदेव को
• आकाशवाणी देहली से मई-जून 1993 में प्रसारित वार्ता
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