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प्रकाशकीय
प्रो. सागरमल जैन ने जैन-विद्या के विविध पक्षों पर अपनी लेखनी चलायी है। उनके सभी निबन्ध सामायिक न होकर सार्वकालिक महत्त्व के हैं। उनके ये लेख श्रमण, तुलसीपज्ञा, दार्शनिक त्रैमासिक, परामर्श, जिनवाणी आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं, साथ ही विभिन्न स्मृति-ग्रन्थों, अभिनन्दन-ग्रन्थों, स्मारिकाओं, संगोष्ठियों एवं कान्फ्रेंसों के आलेख संग्रहों में भी उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। कुछ ग्रन्थों पर लिखी हुई उनकी भूमिकाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। हमारी हार्दिक इच्छा है कि प्रो. सागरमल जैन द्वारा लिखित यह समस्त सामग्री पाठकों को एक साथ उपलब्ध हो जाय । योजना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी बहुत ही व्यय साध्य है, क्योंकि यह सभी सामग्री लगभग तीन हजार पृष्ठों की है। फिर भी कालक्रम में उनके लेखों को संग्रहीत करके प्रकाशित करने की हमारी भावना है। यह सम्पूर्ण सामग्री लगभग दस खण्डों में प्रकाशित होगी। उसके प्रथम चरण के रूप में उनके कुछ लेखों का प्रकाशन श्रमण के साथ-साथ "सागर जैन-विद्या भारती" के प्रथम खण्ड के रूप में अलग से भी कर रहें हैं। इसमें उन सभी निबन्धों का संग्रह किया गया है, जो विगत वर्ष में उनके द्वारा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, ग्रन्थों और संगोष्ठियों हेतु लिखे गये हैं। इनमें से मात्र "जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन" नामक लेख, तुलसीप्रज्ञा खण्ड-१६, अंक ३ में प्रकाशित हुआ है, शेष सभी लेखों का प्रकाशन होना है। फिर भी जिन पत्र-पत्रिकाओं या ग्रन्थों में उनका प्रकाशन होना है, उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए इन्हें यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। इन लेखों का कम्प्यूटर द्वारा कम्पोजिंग-कार्य श्री बृजेश कुमार श्रीवास्तव ने एवं मुद्रण-कार्य रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स ने किया है। साथ ही प्रूफ रीडिंग में डॉ. अशोक कुमार सिंह और श्री असीम कुमार मिश्र ने सहयोग प्रदान किया, अतः हम इन सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं।
भूपेन्द्रनाथ जैन अप्रैल, १९८४
मन्त्री वाराणसी (उ.प्र.)
पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी-5.
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