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________________ 257 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार सन्दर्भ हैं। किन्तु यहाँ हम उनमें से केवल दो प्रसंगों की चर्चा करेंगे। प्रथम प्रसंग में दीघनिकाय का वह उल्लेख आता है जिसमें अजातशत्रु अपने समय के विभिन्न धर्माचार्यों से मिलता है। इस प्रसंग में अजातशत्रु का महामात्य निर्गन्थ ज्ञातपुत्र के सम्बन्ध में कहता है -- "हे देव ! य निर्गन्थ ज्ञातपुत्र संघ और गण के स्वामी हैं, गण के आचार्य हैं, ज्ञानी, यशस्वी तीर्थंकर हैं, बहुत से लोगों के श्रद्धास्पद और सज्जन मान्य हैं। ये चिरप्रवजित एवं अर्धगतवय ( अधेड़) हैं।26 तात्पर्य यह है कि अजातशत्रु के राज्यासीन होने के समय महावीर लगभग 50 वर्ष के रहे होंगे, क्योंकि उनका निर्वाण अजातशत्रु कोणिक के राज्य के 22वें वर्ष में माना जाता है। उनकी सर्व आयु 72 वर्ष में से 22 वर्ष कम करने पर उस समय वे 50 वर्ष के थे -- यह सिंद्ध हो जाता है।27 जहाँ तक बुद्ध का प्रश्न है वे अजातशत्रु के राज्यासीन होने के 8वें वर्ष में निर्वाण को प्राप्त हुए, ऐसी बौद्ध लेखकों की मान्यता है ।28 इस आधार पर दो तथ्य फलित होते हैं -- प्रथम महावीर जब 50 वर्ष के थे, तब बुद्ध (80-8) 72 वर्ष के थे अर्थात् बुद्ध, महावीर से उम्र में 22 वर्ष बड़े थे। दूसरे यह कि महावीर का निर्वाण, बुद्ध के निर्वाण के (22-8314) 14 वर्ष पश्चात् हुआ था। ज्ञातव्य है कि "दीघनिकाय" के इस प्रसंग में जहाँ निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र आदि छहों तीर्थंकरों को अर्धवयगत कहा गया वहाँ गौतम बुद्ध की वय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया किन्तु उपरोक्त तथ्य के विपरीत "दीघनिकाय" में यह भी सूचना मिलती है कि महावीर बुद्ध के जीवनकाल में ही निर्वाण को प्राप्त हो गये थे। "दीघनिकाय" के वे उल्लेख निम्नानुसार ऐसा मैंने सुना -- एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधन्जा नामक शाक्यों के आम्रवन प्रासाद में विहार कर रहे थे। उस समय निगण्ठ नातपुत्त (=तीर्थंकर महावीर ) की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्ठों में फूट हो गई थी, दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एक-दूसरे को वचन-रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे -- "तुम इस धर्मविनय (धर्म) को नहीं जानते मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो (तुम्हारा समझना गलत है), मैं सम्यक्-प्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक। जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी वह तुमने पीछे कही और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले की। तुम्हारा वाद बिना विचार का उल्टा है। तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह-स्थान में आ गये। इस आक्षेप से बचने के लिये यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ। मानो निगण्ठों में युद्ध (बध) हो रहा था। निगण्ठ नातपुत्त के जो श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी निगण्ठ के वैसे दुराख्यात (ठीक से न कहे गये), दुष्प्रवेदित (ठीक से न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (पार न लगाने वाले), अन्-उपशम-संवर्तनिक (न-शान्तिगामी), अ-सम्यक्-संबुद्ध-प्रवेदित (किसी बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा (नीव)-रहित भिन्न-स्तूप, आश्रयरहित धर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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