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________________ + जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श और कातं में जो "त" का प्रयोग है वह मुझे परवर्ती लगता है। लगता है कि "य" श्रुति को "त" श्रुति में बदलने के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार किये "य" को "त" कर दिया गया है। शुचि का सुती, निर्ग्रन्थ का नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मेरी जानकारी में तो नहीं है । इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता है 252 नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, एसो पंचवनमुक्कारी, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़मं हवइ मंगलं । । 1 । । यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में "न" रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का "न" "ण" कर दिया गया है । किन्तु "ऐसो पंचनमुक्कारो" में पुनः "न" उपस्थित है। हम आदरणीय पारिखजी से इस बात में सहमत हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है । किन्तु ग्रन्थ निर्माण के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा । पुनः यदि हम यह मानते हैं कि आगम सर्वज्ञ वचन है, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता है फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा ? इस प्रकार की भिन्न रूपता के लिए लेखक नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है। अतः ऐसे पाठों का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में "सुती" और "सुई", "नाम" और "णाम", "नियंठ" और "निग्गंथ", "कातं" और "काय" ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ संशोधन आवश्यक है । यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि "त" श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र "य" का "त" नहीं कर दिया जावे जैसे शुचि - सुइ का "सुती", निग्गंथ का "नितंठ" अथवा कार्य का "कातं" पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु "आदर्श" में उपलब्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि "सर्वत्र" और सभी "आदर्शो" में उपलब्ध हो । हाँ यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक दो स्थलों पर ही मिले और उनका प्रतिशत 20 से भी कम हो तो वहाँ उन्हें प्रायः न बदला जाय । किन्तु यदि उनका प्रतिशत 20 से अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है शर्त यही हो कि आगम का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो जैसे आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध या प्रश्नव्याकरण । किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें परिवर्तित किया जा सकता है I -- Jain Education International पाठ शुद्धिकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश है अथवा संग्रहणीयों और नियुक्तियों की अनेकों गाथाएँ भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-शुद्धिकरण करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करना होगा और आदर्श में उपलब्ध पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत रखना होगा । 77 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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