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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई है, उसी प्रकार ये नियुक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों। I नियुक्ति साहित्य में उपरोक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पिण्डनिर्युक्ति, ओघनियुक्ति एवं आराधनानिर्युक्ति को भी समाविष्ट किया जाता है, किन्तु इनमें से पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिक नियुक्ति का एक भाग है और ओघनियुक्ति भी आवश्यक नियुक्ति का एक अंश है। अतः इन दोनों को स्वतन्त्र नियुक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ये दोनों निर्युक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ही उपलब्ध होती हैं । आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति होने से उसको वहाँ से पृथक् करके पिण्डनिर्युक्ति के नाम से एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया । मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जहाँ दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, वही पिण्डनिर्युक्ति में ऐसा नहीं है, अतः पिण्डनिर्युक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । दशवैकालिक नियुक्ति तथा आवश्यक नियुक्ति से इन्हें बहुत पहले ही अलग कर दिया गया था । जहाँ तक आराधनानिर्युक्ति का प्रश्न है, श्वेताम्बर साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो. ए. एन. उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना' (पृ. 31 ) में मूलाचार की एक गाथा की वसुनन्दी की टीका के आधार पर इस नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानिर्युक्ति की उनकी यह कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो. ए. एन. उपाध्ये जी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। 7 वह गाथा निम्नानुसार है 206 —— "आराहण णिज्जुति मरणविभत्ती य संगहत्युदिओ । पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ।" [मूलाधार, पंचचारधिकार, 2791 अर्थात् आराधना, निर्युक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति ( वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रन्थों का अध्ययन अस्वाध्याय काल में किया जा सकता है। वस्तुतः मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती-आराधना से तथा निर्युक्ति से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। Jain Education International अतः आराधनानिर्युक्ति नामक निर्युक्ति की कल्पना अयथार्थ है। इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। इन दस निर्युक्तियों के अतिरिक्ति आर्य गोविन्द की गोविन्दनिर्युक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु यह भी नियुक्ति वर्त्तमान में अनुपलब्ध है। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र, व्यवहार - भाष्य', आवश्यकचूर्णि10 एवं निशीथचूर्णि 11 में मिलता है। इस नियुक्ति की विषय वस्तु मुख्य रूप से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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