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प्रो. सागरमल जैन
191.
इस ऋचा के शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसके द्वितीय चरण का अर्थ होगा तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ रंभाता हुआ गौओं के साथ मिलता है, किन्तु मात्र इतना अर्थ करने पर ऋचा का भाव स्पष्ट नहीं होता है। इसके पूर्व ऋतस्य ही सदसो धीतिरद्यौत्सं इस पूर्वचरण को भी लेना होता है। इस चरण का अर्थ भी सायण और दयानन्द ने अलग-अलग ढंग से किया है, किन्तु वे अर्थ भी लाक्षणिक ही हैं। जहाँ दयानन्द 'ऋतस्य ही सदसोधीतिरद्यौत् का अर्थ ऋत की सभा की धारणा शक्ति प्रकाशित हो रही है -- ऐसा अर्थ करते हैं19, वही सायण भाष्य पर आधारित होकर सातवेलकर इसका अर्थ जल स्थान का अर्थात् अन्तरिक्ष का धारक यह इन्द्र प्रकाशता है, ऐसा अर्थ करते हैं29, किन्तु ये दोनों ही अर्थ न तो पूर्णतः शब्दानुसारी है और न पर्णतः लाक्षणिकही कहे जा सकते हैं। दयानन्द ने उसकी लाक्षणिकता को स्पष्ट करते हए -- ईश्वर का प्रकाश फैला है ऐसा भावार्थ किया है। लेकिन यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भारतीय चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा एक परवर्ती विकास है। ऋत की अवधारणा प्राचीन है और उसका अर्थ सत्य या व्यवस्था है।
प्रस्तुत प्रसंग में इस ...वा को वृषभ से संबन्धित मानते हैं तो इसका अर्थ इस प्रकार होगा-- जिस प्रकार तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ गौ समूह के बीच अपनी ध्वनि से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ऋषभ के केवल ज्ञान से उत्पन्न सम्यक् वाणी से सत्य की सभा सुशोभित होती है। वह (ऋषभदेव ) समवसरण में ऊपर आसीन होकर जिस वाणी का उद्घोष करते हैं, वह अपने तीव्र रव शब्द ध्वनि के द्वारा इस समस्त लोक को व्याप्त करती है। इस प्रकार उपर्युक्त ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इसी प्रसंग में ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के 58 वें सूक्त की तीसरी ऋचा, जो वृषभ से सम्बन्धित है, के अर्थ पर भी विचार करें। यह ऋचा इस प्रकार है --
चत्वारि श्रृङगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य।
विधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मां आ विवेश ।। (4.58. 3) इस ऋचा का शब्दानुसारी सामान्य अर्थ इस प्रकार है --
इस वृषभ अथवा देव के चार सींग, तीन पैर, दो सिर और इसके सात हाथ हैं। यह वृषभ या बलवान देव तीन स्थानों पर बंधा हुआ शब्द करता है, यह महान देव मनुष्यों में प्रविष्ट हैं21 । इस शब्दानुसारी अर्थ के आधार पर -- न तो इसमें वृषभ (बैल) का यथार्थ प्राकृतिक स्वरूप का चित्रण है -- यह कहा जा सकता है और न किसी अन्य अर्थ का स्पष्ट बोध होता है। अतः स्वाभाविक रूप से इसके लाक्षणिक अर्थ की ओर जाना होता है।
दयानन्द सरस्वती इसका लाक्षणिक अर्थ इस प्रकार करते हैं--
हे मनुष्यों ! जो बड़ा सेवा और आदर करने योग्य स्वप्रकाश स्वरूप और सब को सुख देने वाला मरणधर्म वाले मनुष्य आदि को सब प्रकार से व्याप्त होता है और जो सुखों को वर्षाने वाला तीन श्रद्धा, पुरुषार्थ और योगाभ्यास से बंधा हुआ विस्तर उपदेश देता है। इस धर्म
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