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________________ 16 मत समझो और जिस समय जो भी कार्य उपस्थित हो पूरी प्रामाणिकता के साथ उसे पूरा करने का प्रयत्न करो। ___ आपके व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पूज्य बाबाजी पूर्णमल जी म.सा. और इन्द्रमल जी म.सा. ने आपके जीवन में धार्मिक-ज्ञान और संस्कारों के बीज का वपन किया था। पूज्य साध्वीश्री पानकुंवर जी म.सा. को तो आप अपनी संस्कारदायिनी माता ही मानते हैं। आपने डॉ. सी.पी. ब्रमों के जीवन से एक अध्यापक में दायित्वबोध एवं शिष्य के प्रति अनुग्रह की भावना कैसी होनी चाहिये, यह सीखा है। पं. सखलालजी और पं. दलसुखभाई को आप अपना द्रोणाचार्य मानते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष में कुछ नहीं सीखा, किन्तु परोक्ष में जो कुछ आप में है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ मानते हैं। आपकी चिन्तन और प्रस्तुतीकरण की शैली बहुत कुछ उनसे प्रभावित है। आपने अपने पूज्य पिताजी से व्यावसायिक प्रामाणिकता और स्पष्टवादिता को सीखा यद्यपि आप कहते हैं कि स्पष्टवादिता का जितना साहस पिताजी में था, उतना आज भी मुझमें नहीं है। पत्नी आपके जीवन का यथार्थ है। आप कहते हैं कि यदि उससे यथार्थ को समझने और जीने की दृष्टि न मिली होती तो मेरे आदर्श भी शायद यथार्थ नहीं बन पाते। सेवा और सहयोग के साथ जीवन के कटुसत्यों को भोगने में जो साहस उसने दिलाया वह उसका सबसे बड़ा योगदान है। आप कहते हैं कि शिष्यों में श्यामनन्दन झा और डॉ. अरुणप्रताप सिंह ने जो निष्ठा एवं समर्पण दिया, वही ऐसा सम्बल है, जिसके कारण शिष्यों के प्रत्युपकार की वृत्ति मुझसे जीवित रह सकी, अन्यथा वर्तमान परिवेश में वह समाप्त हो गई होती। मित्रों में भाई माणकचन्द्र के उपकार का भी आप सदैव स्मरण करते हैं। आप कहते हैं कि उसने अध्ययन के द्वार को पुनः उद्घाटित किया था। समाज सेवा के क्षेत्र में भाई मनोहरलाल और श्री सौभाग्यमलजी जैन वकील सा. आपके सहयोगी एवं मार्गदर्शक रहे हैं। आप यह मानते हैं कि "मैं जो कुछ भी हूँ वह पूरे समाज की कृति हूँ, उसके पीछे अनगिनत हाथ रहे हैं। मैं किन-किन का स्मरण करूँ अनेक तो ऐसे भी होंगे जिन की स्मृति भी आज शेष नहीं है।" वस्तुतः व्यक्ति अपने आप में कुछ नहीं है, वह देश, काल, परिस्थिति और समाज की निर्मिति है, जो इन सबके अवदान को स्वीकार कर उनके प्रत्युपकार की भावना रखता है, वह महान् बन जाता है चिर, जीवी हो जाता है। अन्यथा अपने ही स्वार्थ एवं अहं में सिमटकर समाप्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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