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महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना
करने के लिये राहुलजी उतने दोषी नहीं हैं, जितने सुमंगलविलासिनी के कर्ता। सम्भवतः निर्गन्थों ने जलीय जीवों की हिंसा से बचने के लिये जल के उपयोग पर जो प्रतिबन्ध लगाये गये थे, उसी से अर्थ और टीका में यह भ्रान्ति हुई है। आगे इसी क्रम में उन्होंने स्वयं "वारि" का अर्थ "पाप" करके सब्बवारियुत्तो का अर्थ वह सब पापों का वारण करता है, किया है। किन्तु यह अर्थ मूलपाठ के अनुरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ वारि का अर्थ पाप करके भी युत्तो का अर्थ वारण करना -- किया गया है, वह समुचित नहीं है, क्योंकि पालीकोशों के अनुसार युत्तो शब्द का अर्थ किसी भी स्थिति में "वारण" नहीं हो सकता है। कोश के अनुसार तो इस युत्त का अर्थ लिप्त होता है, अतः इस वाक्यांश का अर्थ होगा -- वह सर्व पापों से युक्त या लिप्त होता है -- जो निश्चय ही इस प्रसंग में गलत है। मेरी दृष्टि में यहाँ मूलपाठ में भ्रान्ति है -- सम्भवतः मूलपाठ "युत्तो" न होकर "यतो" होना चाहिए। क्योंकि मूलपाठ में आगे निर्गन्थ के लिये "यतो" विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो "यतो" पाठ की पुष्टि करता है। यदि हम मूलपाठ "युत्तो" ही मानते हैं उसे "अयुत्तो" मानकर वारि+अयत्तो की संधि प्रक्रिया में "अ" का लोप मानना होगा। प्राकृत व्याकरण और सम्भवतः पालि व्याकरण में भी स्वर-सन्धि के नियमों में दो स्वरों की सन्धि में विकल्प से एक स्वर का लोप माना जाता है। अतः मूल पाठ "अयुत्तो" होना चाहिये, किन्तु सुमंगलविलासिनी में ऐसा कोई निर्देश नहीं है। (पठमोभागो, पृ.189), अपितु उसमें संधि तोड़कर "युत्तो" पाठ ही है। किन्तु यतो पाठ मानने पर इस अंश का अर्थ होगा, वह सब पापों के प्रति संयमवान या उनका नियंत्रण करने वाला होता है। अतः राहुल जी का यह अनुवाद भी मेरी दृष्टि में मूलपाठ से संगतिपूर्ण नहीं है, फिर भी उन्होंने वह सर्वपापों का वारण करता है, ऐसा जो अर्थ किया है, वह सत्य के निकट है। मूलपाठ भ्रान्त और टीका के अस्पष्ट होते हुए भी, उन्होंने यह अर्थ किस आधार पर किया मैं नहीं जानता, सम्भवतः यह उनकी स्वप्रतिभा से ही प्रसूत हुआ होगा। फिर भी पालि के विद्वानों को इस समस्या पर विचार करना चाहिए। इसके आगे सब्बवारिधुतो का अर्थ -- वह सभी पापों से रहित होता है-- संगतिपूर्ण है। किन्तु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ -- वह सभी पापों से रहित होता है -- संगतिपूर्ण है। किन्तु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ पुनः मूल से संगति नहीं रखता है। राहुलजी ने इसका अर्थ वह सभी पापों के वारण में लगा रहता है -- किस प्रकार किया मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। क्योंकि किसी भी स्थिति में "फुटो" का अर्थ-वारण करने में लगा रहता है, नहीं होता है। पालि के विद्वान इस पर भी विचार करें। मूल के फुटो अथवा सुमंगलविलासिनी टीका के फुटो का संस्कृत रूप स्पृष्ट या स्पष्ट होगा। इस आधार पर इसका अर्थ होगा वह सब पापों से स्पृष्ट अर्थात् स्पर्शित या व्याप्त होता है, किन्तु यह अर्थ भी संगतिपूर्ण नहीं लगता है-- निर्गन्थ ज्ञातपुत्र स्वयं अपने निर्गन्थों को सब पापों से स्पर्शित तो नहीं कह सकते हैं। यहाँ भी राहुल जी ने अर्थ को संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास तो किया, किनतु वह मूलपाठ के साथ संगति नहीं रखता है। पालि अंग्रेजी कोश में राइसडेविड्स ने भी इन दोनों शब्दों के अर्थ निश्चय में कठिनाई का अनुभव किया है। मेरी दृष्टि में यहाँ भी या तो मूलपाठ में कोई भ्रान्ति है या पालि व्याकरण के स्वर संधि के नियम से "अफुटो" के "अ" का लोप हो गया है। मेरी दृष्टि में मूलपाठ होना चाहिए -- सब्बवारिअफुटो, तभी इसका अर्थ होगा वह सर्व पापों से अस्पर्शित
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