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________________ 180 महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना यम्मिलित हो गयी, तो त्रिपिटक संकलनकर्ताओं ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के नाम से ही प्रस्तुत किया। त्रिपिटक के संकलन कर्ताओं की इस भ्रान्ति का अनुसरण राहुलजी ने भी किया और अपनी ओर से टिप्पणी के रूप में भी इस भूल के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं किया। जबकि उनके सहकर्मी बौद्धभिक्षु जगदीश काश्यपजी ने इस भूल के परिमार्जन का प्रयत्न दीघनिकाय की भूमिका में विस्तार से किया है, वे लिखते , -- "सामञयफलसुत्त" में वर्णित छः तैर्थिकों के मतों के अनुसार, अपने-अपने साम्प्रदायिक गठनों के केन्द्र अवश्य रहे होंगे। इनके अवशेष खोजने के लिए देश के वर्तमान धार्मिक-जीवन म खोज करना सार्थक होगा। कम से कम "निगण्ठ-नातपुत्त" से हमलोग निश्चित रूप से परिचित हैं। वे जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ही हैं। पालि-संस्करण में वे ही "चात्योम संवर" सिद्धान्त के प्रर्वतक कहे जाते हैं। सम्भवतः ऐसा भूल से हो गया है। वास्तव में "चातुर्याम-धर्म" के प्रर्वतक उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे -- सव्वातो पाणातिवायाओ वेग्मणं एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वातो बहिद्धादाणाओ वेग्मणं ( ठाणांग (ठाण 4), पृ. 201, सूत्र 266 )। उपर्युक्त वर्णित "चातुर्याम संवर" सिद्धान्त में परिग्गहवेरमणं" नामक एक और व्रत जोड़कर पार्श्वनाथ के परवर्ती तीर्थंकर महावीर ने "पंचमहाव्रत-धर्म" का प्रवर्तन किया। [ज्ञातव्य है कि यहाँ काश्यपजी से भी भूल हो गयी है वस्तुतः महावीर ने परिग्रह विरमण नहीं, मैथुनविरमण या ब्रह्मचर्य का महाव्रत जोड़ा था। "बहिद्धादाण" का अर्थ तो परिग्रह है ही। पार्श्व स्त्री को भी परिग्रह ही मानते थे। यह भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस रूप में पालि में "चातुर्यामसंवर" सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है, वैसा जैन साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। पालि में यह इस प्रकार वर्णित है -- "सब्बवारिवारिता च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो" और इसका अर्थ भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। इसे देखकर यह ज्ञात होता है कि सम्भवतः यह तोड़-मरोड़ के ही कारण है।" [दीघनिकाय-नालंदासंस्करण, प्रथमभाग की भूमिका, पृ.१३-१४] । अतः राहुलजी ने चार संवरों का उल्लेख जिस रूप में किया है, वह और दीघनिकाय के इस अंश का जो हिन्दी अनुवाद राहुल जी ने किया है वह भी, निर्दोष नहीं है। दीघनिकाय का वह मूलपाठ, उसकी अट्टकथा और अनुवाद इस प्रकार है -- "एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो मं एतदवोच - इध महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति ? महाराज निगण्ठो कथं च महाराज निगण्ठो चातुयाम संवरोसंवुतो होति ? इध सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुततो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो च एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति -- अयं वुच्चाति, महाराज निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा ति।" (दीघनिकाय २/५/२८) नाटपुत्तपादे चातुयामसंवरसंवुतो हि चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो। सब्बवारितो चाति वारितसब्बउदको पटिक्खित्तसब्बसीतोदको ति अत्थो। सो किर सीतोदके सत्तसंञ होति, तस्मा न तं वलजेति। सब्बवारियुत्तो ति सब्बेन पापवारणेन युत्तो। सब्बवारिधुतो ति सब्बेन पापवारणेन धुतपापो। सब्बवारिफुटो ति सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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