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________________ 155 जैनधर्म और सामाजिक समता पर सामाजिक कर्त्तव्यों के कारण और आजीविका हेतु व्यवसाय को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई। जैसे-जैसे आजीविका अर्जन के विविध स्रोत विकसित होते गये वैसे-वैसे मानव समाज में विविध जातियां अस्तित्व में आती गईं, किन्तु ये जातियां मौलिक नहीं है । मात्र मानव सृजित हैं। 3. जाति और वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर न होकर व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण एवं उसके द्वारा अपनाये गये व्यवसाय द्वारा होता है अतः वर्ण और जाति व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु कर्मणा है । 4. यदि जाति और वर्णव्यवस्था व्यवसाय अथवा सामाजिक दायित्व पर स्थित है तो ऐसी स्थिति में सामाजिक कर्त्तव्य और व्यवसाय के परिवर्तन के आधार पर जाति एवं वर्ण में परिवर्तन सम्भव है । 5. कोई भी व्यक्ति किसी जाति या परिवार में उत्पन्न होने के कारण हीन या श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु वह अपने सत्कर्मों के आधार पर श्रेष्ठ होता है। 6. जाति एवं कुल की श्रेष्ठता का अहंकार मिथ्या है। उसके कारण सामाजिक समता एवं शान्ति भंग होती है । 7. जैनधर्म के द्वार सभी वर्ण और जातियों के लिए समान रूप से खुले रहे हैं। प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों से यह संकेत मिलता है कि उसमें चारो ही वर्णों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन - पूजा करने, आवक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्य लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे। सातवीं-आठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य माना । श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति- जुंगित जैसे - चाण्डाल आदि और कर्म जुंगित जैसे कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया । किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था, जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखने हेतु मान्यकिया, क्योंकि आगमों में हरकेशी बल, मैतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं। Jain Education International 8. प्राचीन जैनागमों में मुनि के लिए उत्तम, मध्यम और निम्न तीनों ही कुलों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश मिलता है इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म वर्ण या जाति का कोई भी महत्त्व नहीं था । ―― 9. जैनधर्म यह स्वीकार करता है कि मनुष्यों में कुछ स्वभावगत भिन्नताएं सम्भव हैं, जिनके आधार पर उनके सामाजिक दायित्व एवं जीविकार्जन के साधन भिन्न होते हैं। फिर भी वह इस बात का समर्थक हैं कि सभी मनुष्यों को अपने सामाजिक दायित्वों एवं आजीविका अर्जन के साधनों को चयन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता और सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिये, क्योंकि यही सामाजिक समता का मूल आधार है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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