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________________ 145 जैनधर्म और सामाजिक समता मानव समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हो तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्य क्षेत्र निर्धारित कर सके। इस सामाजिक समता के सन्दर्भ में जहाँ तक जैन आचार्यों के चिन्तन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविकयोग्यता जन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कार जन्य तरतमता को स्वीकारते हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या साधना का उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुले रहना चाहिए। जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है उसका अपना पुरुषार्थ, उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म। हम जैनों के इसी दृष्टिकोण को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेगें। जन्मना वर्ण-व्यवस्था एक असमीचीन अवधारणा __ जैन आचार्य श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा से और शूद्र की पैरों से हुई है। चूँकि मुख श्रेष्ठ अंग है,अतः इन सबमें ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है। ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसी वर्ण-व्यवस्था जैन चिन्तकों को स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न होते हैं। अतः सभी समान है। पुनः इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ एवं उत्तम और किसीमेनिकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भी जैनों को मान्य नहीं है। आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांग-चरित में इस बात का विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्णों के आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बन्धी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के सन्दर्भ में नहीं। वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किन्तु मनुष्य के विषय में यह विचार संभव नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य समान है। मनुष्यों की एक ही जाति है। न तो सभी ब्राह्मण शुभ्र वर्ण के होते हैं, न सभी क्षत्रिय रक्त वर्ण, न सभी वैश्य पीत वर्ण के और न सभी शूद्र कृष्ण वर्ण के होते हैं। अतः जन्म के आधार पर जाति व वर्ण का निश्चय सम्भव नहीं है।' समाज में ऊँच-नीच का आधार किसी वर्ण विशेप या जाति विशेष में जन्म लेना नहीं माना जा सकता। न केवल जैन परम्परा,अपितु हिन्दू परम्परा में भी अनेक उदाहरण है जहाँ निम्न वर्णों से उत्पन्न व्यक्ति भी अपनी प्रतिभा और आचार के आधार पर श्रेष्ठ कहलाये। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए वंराग-चरित' में जटासिंह नन्दि कहते हैं कि "जो ब्राह्मण स्वयं राजा की कृपा के आकांक्षी हैं और उनके द्वारा अनुशासित होकर उनके अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे दीन ब्राह्मण नृपों ( क्षत्रियों) से कैसे श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। द्विज ब्रह्मा के मुख से निर्गत हुए अतः श्रेष्ठ हैं -- यह वचन केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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