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________________ 142 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म 13. विमल-- जम्बु 14. अनन्त -- अश्वत्थ (पीपल) 15. धर्म -- दधिपर्ण 16. शान्ति -- नन्दीवृक्ष 17. कुन्थु -- तिलक 18. अर -- आमवृक्ष .19. मल्ली -- अशोक 20. मुनिसुव्रत -- चम्पक 21. नमि -- बकुल 22. नेमि -- वेत्रसवृक्ष 23. पार्श्व -- धातकीवृक्ष 24. महावीर (वर्धमान) -- शालवृक्ष इस प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक तीर्थकर ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अशोक वृक्ष की छाया में बैठकर ही अपना उपदेश देते हैं इससे भी उनकी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजगता प्रगट होती है। प्राचीनकाल में जैन मुनियों को वनों में ही रहने का निर्देश था, फलतः वे प्रकृति के अति निकट होते थे। कालान्तर जब कुछ जैन मुनि चैत्यों या बस्तियों में रहने लगे तो उनके दो विभाग हो गये -- __ 1. चैत्यवासी 2. वनवासी किन्तु इसमें भी चैत्यवासी की अपेक्षा वनवासी मुनि ही अधिक आदरणीय बने। जैन परम्परा में वनवास को सदैव ही आदर की दृष्टि से देखा गया। इसीप्रकार हम यह भी है कि जैन तीर्थकर प्रतिमाओं को एक-दूसरे से पृथक् करने के लिए जिन प्रतीक चिन्हों (लांछनों) को प्रयोग किया गया है उनमें भी वन्य जीवों या जल-जीवों को ही प्राथमिकता मिली है। यथा -- तीर्थकर -- लांछन विमल -- वराह ऋषभ -- बैल अनन्त -- श्येनपक्षी अजित -- गज अनन्त -- रीछ सम्भव -- अश्व शान्तिनाथ -- मृग अभिनन्दन -- कपि कुंथु -- छाग सुमतिनाथ -- क्रौंच सुद्रत -- कूर्म पुष्पदंत -- मकर पार्श्वनाथ -- सर्प वासुपूज्य -- महिष महावीर -- सिंह इन सभी तथ्यों से यह फलित है कि जैन आचार्य प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सजग रहे है तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार सम्बन्धी विधिनिषेध पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने में पर्याप्त रूप से सहायक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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