________________
प्रो. सागरमल जैन
131
औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गये पथ पर गतिशील हुयी हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर का ही मुखरित रूप है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है।
यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्णव्यवस्था और वेदों की प्रामाण्यता से इन्कार किया और इस प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति की इस विकृति का परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गये। वैदिक कर्मकाण्ड अब तन्त्रसाधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक अंग बन गया। आध्यात्मिक विशुद्धि के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा। जहां एक ओर भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणायें प्रदान की वहीं दूसरी ओर वैदिक परम्परा के प्रभाव से तान्त्रिक साधनायें जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी प्रविष्ट हो गयी। अनेक हिन्द देव-देवियां प्रकारान्तर से जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गई। जैनधर्म में यक्ष-यक्षियों एवं शासनदेवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र हैं। अनेक हिन्दू देवियां जैसे-- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थकरों की शासन रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म में स्वीकार कर ली गयी। श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना जैन जीवन पद्धति का अंग बन गई। हिन्दू परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आवाह्न एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजाविधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर कर्मकाण्ड प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहां हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के स्प में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धारायें एक दूसरे से समन्वित हुयी।
आज जब रामकृष्ण संस्कृति संस्थान जैसी संस्थाएँ जैन विद्या के शोध-कार्य को अपने हाथों में ले रही हैं तो मैं कहना चाहूंगा कि उन्हें इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिए, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियां पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को सम्यक् रूप से समझा जा सके। यह कार्य वैसे भी इस संस्था का विशेष दायित्व बनता है, क्योंकि इसकी स्थापना स्वामी रामकृष्ण और विवेकानन्द के स्वप्न को साकार करने हेतु हुई हैं। आज हमें तटस्थ बुद्धि से धर्मों की इस पारस्परिक प्रभावशीलता एवं निकटता को समझना होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org