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________________ ग्वालियर में आपका प्रवास पूरे तीन वर्ष रहा। इसी अवधि में आपका चयन म.प्र. लोक सेवा आयोग से हो चुका था और उसमें वरीयताक्रम में आपको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सूची में सर्वोच्च स्थान पर होने के कारण सहायक प्राध्यापक के रूप में आपकी पदोन्नति करने के लिए शासन प्रतीक्षारत था। उधर परिवार के लोग भी यह चाहते थे कि ग्वालियर जैसे सुदूर नगर की अपेक्षा शाजापुर के निकटवर्ती उज्जैन, इन्दौर आदि स्थानों पर आपका स्थानान्तरण हो जाय। संयोग से तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री श्री कन्हैयालाल मेहता आपके परिजनों के परिचित थे, अतः नवम्बर 1967 में आपको शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इन्दौर स्थानान्तरित किया गया एवं जुलाई 1968 में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष बनाकर आपको हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल भेज दिया गया। वैसे तो इन्दौर और भोपाल दोनों ही आपके गृह नगर शाजापुर से नजदीक थे, किन्तु इन्दौर की अपेक्षा भोपाल में अध्ययन की दृष्टि से यहाँ अधिक समय-मिलने की सम्भवना थी। अतः आपने 1 अगस्त 1968 को हमीदिया महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। इस महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय प्रारम्भ ही हुआ था और मात्र दो छात्र थे। अतः प्रारम्भ में अध्यापन कार्य का अधिक भार न होने से आपने शोध-प्रबन्ध को पूर्ण करने का प्रयत्न किया और अगस्त 1969 में लगभग 1500 पृष्ठों का बृहदकाय शोधप्रबन्ध परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया। विभाग में छात्रों की अत्यल्प संख्या और महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र विषय के उपेक्षित होने के कारण आपका मन पूरी तरह नहीं लग पा रहा था, अतः आपने दर्शनशास्त्र को लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया। संयोग से आपके भोपाल पहुँचने के बाद दूसरे वर्ष ही भोपाल विश्वविद्यालय की स्थापना हो गयी और आपको दर्शनशास्त्र विषय की अध्ययन समिति का अध्यक्ष तथा कला संकाय एवं विद्वत् परिषद का सदस्य बनने का मौका मिला। आपने पाठ्यक्रम में समाजदर्शन, धर्मदर्शन जैसे रुचिकर प्रश्नपत्रों का समायोजन किया। साथ ही छात्र और महाविद्यालय की परिस्थितियों के अनुरूप मुस्लिम-दर्शन और ईसाई-दर्शन के विशिष्ट पाठ्यक्रम निर्धारित किये। एक ओर संशोधित पाठ्यक्रम और दूसरी ओर आपकी अध्यापन शैली के प्रभाव से छात्र संख्या में वृद्धि होने लगी। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि बी.ए. प्रथम वर्ष में लगभग सौ से भी अधिक छात्र होने लगे और परिणामस्वरूप अध्यापन-कक्ष छोटे पड़ने लगे। अन्ततोगत्वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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