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________________ 121 रूचि होती है । अन्य परम्पराओं में जो स्थान अविद्या का है, वही स्थान जैन परम्परा में मोहनीय कर्म का है। जिस प्रकार अन्य परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण अविद्या है, उसी प्रकार जैन परम्परा में बन्धन का मूल कारण मोहनीय कर्म । मोहनीय कर्म का क्षयोपशम ही आध्यात्मिक विकास का आधार है । 5. आयुष्य कर्म जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार का है -- (1) नरक आयु, ( 2 ) तिर्यंच आयु (वानस्पतिक एवं पशु जीवन ) (3) मनुष्य आयु और ( 4 ) देव आयु । आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है । स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण मानें गये हैं । (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण (1) महारम्भ ( भयानक हिंसक कर्म ), ( 2 ) महापरिग्रह ( अत्यधिक संचय वृत्ति), (3) मनुष्य, पशु आदि का वध करना, ( 4 ) मांसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन । जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण —— (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण (1 ) कपट करना (2) रहस्यपूर्ण कपट करना (3) असत्य भाषण (4) कम-ज्यादा तोल-माप करना । कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में माया ( कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है। -- Jain Education International -1 (1) अल्प आरम्भ, (स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण (1) सरलता, ( 2 ) विनयशीलता, ( 3 ) करूणा और (4) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना । तत्त्वार्थसूत्र में ( 2 ) अल्प परिग्रह, ( 3 ) स्वभाव की सरलता और (4) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के बन्धका कारण कहा गया है। 1 (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण (1 ) सराग (सकाम) संयम का पालन, ( 2 ) संयम का आंशिक पालन, ( 3 ) सकाम - तपस्या (बाल-तप ) ( 4 ) स्वाभाविक रुप में कर्मों के निर्जरित होने से । तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यक्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थितिवश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम - निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं। आकस्मिक मरण प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कर्म को भोग रहा है और -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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