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________________ प्रो. सागरमल जैन 108 संसार में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता है, वही पुण्य है।"32 जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार, पुण्य-कर्म वे शुभ पुद्गल-परमाणु हैं, जो शुभवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं। आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल-परमाणु जो उन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते हैं। शुभ मनोवृत्तियाँ भावपुण्य हैं और शुभ पुद्गल-परमाणु द्रव्यपुण्य हैं। पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण ___ भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है।33 स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्य निरुपित है34 -- 1. अन्नपुण्य -- भोजनादि देकर क्षुधार्त की क्षुधा-निवृत्ति करना। 2. पानपुण्य -- तृषा (प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना । 3. लयनपुण्य -- निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ आदि बनवाना। 4. शयनपुण्य -- शय्या, बिछौना आदि देना। 5. वस्त्रपुण्य -- वस्त्र का दान देना। 6. मनपुण्य -- मन से शुभ विचार करना । जगत् के मंगल की शुभकामना करना। 7. वचनपुण्य-- प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग करना। 8. कायपुण्य --रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना। 9. नमस्कारपुण्य -- गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिवादन करना। पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी शुभाशुभता या पुण्य-पाप के निर्णय के दो आधार हो सकते हैं -- (1) कर्म का बाह्य-स्वरूप अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव और (2) कर्ता का अभिप्राय। इन दोनों में कौन-सा आधार यथार्थ है, यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध-दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभाशुभता का सच्चा आधार माना गया। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि -- जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डालें तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन को प्राप्त होता है। धम्मपद में बुद्ध-वचन भी ऐसा ही है (नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है।36 बौद्ध दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण सूत्रकृतांगसूत्र के आद्रक सम्वाद में भी मिलता है।37 जहाँ तक जैन मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001684
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size19 MB
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